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तेईसवाँ अध्ययन केशी-गौतमीय
अध्ययन-सार * प्रस्तुत तेईसवें अध्ययन का नाम केशी-गौतमीय (केसि-गोयमिज्ज) है। इसमें पार्वापत्य केशी
कुमार श्रमण और भगवान् महावीर के पट्टशिष्य गणधर गौतम (इन्द्रभूति) का जो संवाद श्रावस्ती
नगरी में हुआ, उसका रोचक वर्णन है। * जैनधर्म के तेइसवें तीर्थंकर पुरुषादानीय भ. पार्श्वनाथ थे। उनका धर्मशासनकाल श्रमण भगवान्
महावीर (२४वें तीर्थंकर) से ढाई सौ वर्ष पूर्व का था। भगवान् पार्श्वनाथ मोक्ष प्राप्त कर चुके थे, किन्तु उनके शासन के कई श्रमण और श्रमणेपासक विद्यमान थे। वे यदा-कदा श्रमण भगवान् महावीर से तथा उनके श्रमणों से मिलते रहते थे। भगवतीसूत्र आदि में ऐसे कई पार्खापत्य स्थविरों (कालास्यवैशिक, श्रमण गांगेय आदि) के उल्लेख आते हैं। वे विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में तत्त्वचर्चा करके उनके समाधान से सन्तुष्ट होकर अपनी पूर्वपरम्परा को त्याग कर भ. महावीर द्वारा प्ररूपित पंचमहाव्रतधर्म को स्वीकार करते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में भी वर्णन है कि केशी और गौतम की विभिन्न विषयों पर तत्त्वचर्चा हुई और अन्त में केशी श्रमण अपने शिष्यवृन्द सहित भ. महावीर के पंचमहाव्रतरूप धर्मतीर्थ में सम्मिलित हो जाते हैं। भ. पार्श्वनाथ की परम्परा के प्रथम पदधर आचार्य शभदत्त द्वितीय पट्टधर आचार्य हरिदत्त तथा तृतीय पट्टधर आचार्य समद्रसरि थे, इनके समय में 'विदेशी' नामक धर्मप्रचारक आचार्य उज्जयिनी नगरी में पधारे और उनके उपदेश से तत्कालीन महाराजा जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और राजकुमार केशी कुमार प्रतिबुद्ध हुए। तीनों ने दीक्षा ली। कहा जाता है कि इन्हीं केशी श्रमण ने
श्वेताम्बिका नगरी के नास्तिक राजा प्रदेशी को समझाकर आस्तिक एवं दृढ़धर्मी बनाया था। * एक बार केशी श्रमण अपनी शिष्यमण्डली सहित विचरण करते हुए श्रावस्ती पधारे। वे तिन्दुक उद्यान में
ठहरे। संयोगवश उन्हीं दिनों गणधर गौतम भी अपने शिष्यवर्गसहित विचरण करते हुए श्रावस्ती पधारे और कोष्ठक उद्यान में ठहरे। जब दोनों के शिष्य भिक्षाचरी, आदि को नगरी में जाते तो दोनों की परम्पराओं के क्रियाकलाप में प्रायः समानता और वेष में असमानता देखकर आश्चर्य तथा जिज्ञासा उत्पन्न हुई। दोनों के शिष्यों ने अपने-अपने गुरुजनों से कहा। अत: दोनों पक्ष के गुरुओं ने निश्चय किया कि हमारे पारस्परिक मतभेदों तथा आचारभेदों के विषय में एक जगह बैठकर चर्चा कर ली जाए। केशी कुमारश्रमण पार्श्वपरम्परा के आचार्य होने के नाते गौतम से ज्येष्ठ थे, इसलिए गौतम ने विनयमर्यादा की दृष्टि से इस विषय में पहल की। वे अपने शिष्यसमूहसहित तिन्दुक उद्यान में पधारे, जहाँ केशी श्रमण विराजमान थे। गौतम को आए देख, केशी श्रमण ने उन्हें पूरा आदरसत्कार दिया, उनके बैठने के लिए पलाल आदि प्रस्तुत
किया और फिर क्रमश: बारह प्रश्नोत्तरों में उनकी धर्मचर्चा चली। १. 'पासजिणाओ य होई वीर जिणो। अड्ढाइज्जसएहिं गएहिं चरिमो समुप्पन्नो।।'
- आवश्यकनियुक्ति मलय. वृत्ति,पत्र २४१ २. भगवतीसूत्र १/९, ५/९ ९/३२; सूत्रकृतांग २/७ अ. ३. नाभिनन्दनोद्धारप्रबन्ध, १३६