SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय ३५७ भुत्तभोगा तओ पच्छा०–रथनेमि के द्वारा इन उद्गारों के कहने का तात्पर्य यह है कि 'मनुष्यजन्म अतीव दुर्लभ है। जब मनुष्यजन्म मिला ही है तो इसके द्वारा विषयसुखरूप फल का उपभोग कर लें। फिर भुक्तभोगी होने के बाद बुढ़ापे में जिनमार्ग-जिनोक्त मुक्तिपथ का सेवन कर लेंगे। ___ असंभंता-राजीमती मन में आश्वस्त हो गई कि यह कुलीन है, इसलिए बलात् अकार्य में प्रवृत्त नहीं होगा, इस अभिप्राय से वह घबराई नहीं। धिरत्थु तेऽजसोकामी-(१) हे अपयश के कामी ! दुराचार की वांच्छा होने के कारण तुम्हारे पौरुष को धिक्कार है या (२) हे कामिन् भोगाभिलाषी! महाकुल में जन्म होने से प्राप्त यश को धिक्कार है।३ जीवियकारणा—असंयमी जीवन जीने के निमित्त से अथवा भोगवासनामय जीवन जीने के हेतु। __वंतं इच्छसि आवेउं—तुम दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् भी त्यागे हुए भोगों को पुन: भोगने को आतुर हो रहे हो। दोनों के कुल का निर्देश-राजीमती ने अपने आपको भोजराजकुल की और रथनेमि को धकवष्णिकल का बताया है. इस प्रकार कल का स्मरण करा कर अकार्य में प्रवत्त होने से रोका है। ___ मा कुले गंधणा होमो-सर्प की दो जातियाँ होती हैं-गन्धन और अगन्धन । गन्धनकुल का सर्प किसी को डस लेने के बाद यदि मंत्रबल से बलाया जाता है तो वह आता है और अपने उगले हए विष को पुनः चूस कर पी लेता है, किन्तु अगन्धनकुल का सर्प मंत्रबल से आता जरूर है, किन्तु वह मरना स्वीकार कर लेता है, मगर उगले हुए विष को पुन: चूस कर नहीं पीता। विवेचन—सुभासियं—सुभाषित—ऐसा सुभाषित जो संवेगजनक था।६ । अंकुसेण जहा नागो—जैसे अंकुश से हाथी पुनः यथास्थिति में आ जाता है। इस विषय में प्राचीन आचार्यों ने नपरपण्डित का आख्यान प्रस्तुत किया है—किसी राजा ने नपरपण्डित का आख्यान पढा। उसे ष्ट होकर उसने रानी, महावत और हाथी को मारने का विचार कर लिया। राजा ने इन तीनों को एक टूटे हुए पर्वतशिखर पर चढ़ा दिया और महावत को आदेश दिया कि इस हाथी को यहाँ से नीचे धकेल दो। निरुपाय महावत ने ज्यों ही हाथी को प्रेरणा दी कि हाथी क्रमश: अपने तीनों पैर आकाश की ओर उठा कर सिर्फ एक पैर से खड़ा हो गया, फिर भी राजा का रोष नहीं मिटा। नागरिकों को जब राजा के इस अकृत्य का पता चला तो उन्होंने राजा से प्रार्थना की-महाराज! चिन्तामणि के समान इस दुर्लभ हाथी को क्यों मरवा रहे हैं? बेचारे इस पश का क्या अपराध है? इस पर राजा ने महावत से पछा-क्या हाथी को वापिस लौटा सकते हैं । महावत ने कहा- अगर आप रानी को तथा मुझे अभयदान दें तो मैं वैसा कर सकता हूँ। राजा ने 'तथाऽस्तु'कहा। तब महावत ने अपने अंकुश से हाथी को धीरे-धीरे लौटा लिया। इसी तरह राजीमती ने भी संयम से पतित होने की भावना वाले रथनेमि को अहितकर पथ से धीरे-धीरे वचन रूपी अंकुश से लौटा कर चारित्रधर्म में स्थापित किया। १. ब्रहवृत्ति, पत्र ४९४ २ . बहदवृत्ति, पत्र ४९४ ३. (क) धिगस्तु ते—तव पौरुषमिति गम्यते, अयशः कामिन्निव अयशः कामिन् ! दुराचारिवाछितया; यद्वा ते- तव यशो __-महाकुलसंभवोद्भूतं धिगस्त्विति सम्बन्धः। कामिन-भोगाभिलाषिन्! - बृहद्वत्ति, पत्र ४९५ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४९५ ५. अहम् ..... भोजराजस्य उग्रसेनस्य, त्वं चासि अन्धकवृष्णे : कुले जात इत्युभयत्र शेषः।- बृहद्वृत्ति, पत्र ४९५ ६. बृहद्वृत्ति,पत्र ४९६ ७. (क) वही, पत्र ४९६ (ख) उत्त. प्रिय. टीका भा. ३, पृ. ८१२-८१३ पढ़ते
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy