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बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय
३५५ को देख कर राजीमती सम्भ्रान्त न हुई (घबराई नहीं)। उसने वहीं (गुफा में ही) अपने शरीर का (वस्त्रों से) बँक लिया।
४०. अह सा रायवरकन्ना सुट्ठिया नियम-व्वए।
जाई कुलं च सीलं च रक्खमाणी तयं वए॥ [४०] तत्पश्चात् अपने नियमों और व्रतों में सुस्थित (अविचल) उस श्रेष्ठ राजकन्या (राजीमती) ने जाति, कुल और शील का रक्षण करते हुए रथनेमि से कहा
४१. जइ सि रूवेण वेसमणो ललिएण नलकूबरो।
तहा वि ते न इच्छामि जइ सि सक्खं पुरन्दरो॥ [४१] 'हे रथनेमि! यदि तुम रूप में वैश्रमण (कुबेर)-से होओ, लीला-विलास में नलकूबर देव जैसे होओ, और तो क्या, तुम साक्षात् इन्द्र भी होओ, तो भी मैं तुम्हें नहीं चाहती।'
४२. पक्खंदे जलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं।
नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे।। [४२] 'अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प धूम की ध्वजा वाली, जाज्वल्यमान, भयंकर दुष्प्रवेश (या दुःसह) अग्निज्वाला में प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु वमन किये (उगले) हुए अपने विष को (पुनः) पीना नहीं चाहते।'
४३. धिरत्थु तेऽजसोकामी! जो तं जीवियकारणा।
वन्तं इच्छसि आवेङ सेयं ते मरणं भवे।। [४३] '(किन्तु) हे अपयश के कामी! धिक्कार है तुम्हें कि तुम (भोगी) जीवन के लिए वान्तत्यागे हुए भोगों का पुनः आस्वादन करना चाहते हो! इससे तो तुम्हारा मर जाना श्रेयस्कर है।'
४४. अहं च भोयरायस्स तं च सि अन्धगवण्हिणो।
मा कुले गन्धणा होमो संजमं निहओ चर॥ [४४] 'मैं भोजराज की (पौत्री) हूँ और तुम अन्धकवृष्णि के (पौत्र) हो। अतः अपने कुल में हम गन्धनजाति के सर्पतुल्य न बनें। तुम निभृत (स्थिर) होकर संयम का आचरण करो।'
४५. जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ।
वायाविद्धो व्व हडो अट्ठिअप्पा भविस्ससि॥ [४५] 'यदि तुम जिस किसी स्त्री को देख कर ऐसे ही रागभाव करते रहोगे, तो वायु से प्रकम्पित हड नाम निर्मूल वनस्पति की तरह अस्थिर चित्त वाले हो जाओगे।'
४६. गोवालो भण्डवालो वा जहा तद्दव्वणिस्सरो।
एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि॥ [४६] 'जैसे गोपालक (दूसरे की गायें चराने वाला) अथवा भाण्डपाल (वेतन लेकर किसी के