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________________ ३५४ उत्तराध्ययनसूत्र राजीमती द्वारा भग्नचित्त रथनेमि का संयम में स्थिरीकरण ३३. गिरिं रेवययं जन्ती वासेणुल्ला उ अन्तरा। वासन्ते अन्धयारंमि अन्तो लयणस्स सा ठिया॥ [३३] वह (साध्वी राजीमती प्रभु के दर्शन-वंदनार्थ एक बार) रैवतकगिरि पर जा रही थी कि बीच में ही वर्षा से भीग गई। घनघोर वर्षा हो रही थी, (इस कारण चारों ओर) अन्धकार हो गया था। (इस स्थिति में) वह (एक) गुफा (लयन) के अन्दर (जा कर) ठहरी। ३४. चीवराई विसारन्ती जहा जाय त्ति पासिया। रहनेमी भग्गचित्तो पच्छा दिट्ठो य तीइ वि॥ ___ [३४] सुखाने के लिए अपने चीवरों (वस्त्रों) को फैलाती हुई राजीमती को यथाजात ( नग्न) रूप में देख कर रथनेमि का चित्त विचलित हो गया। फिर राजीमती ने भी उसे देख लिया। ३५. भीया य सा तहिं दटुं एगन्ते संजयं तयं। ___ बाहाहिं काउं संगोफ वेवमाणी निसीयई॥ [३५] वहाँ (उस गुफा में) एकान्त में उस संयत को देख कर वह भयभीत हो गई। भय से कांपती हुई राजीमती अपनी दोनों बांहों से वक्षस्थल को आवृत कर बैठ गई। ३६. अह सो वि रायपुत्तो समुद्दविजयंगओ। भीयं पवेवियं दटुं इमं वक्कं उदाहरे।। [३६] तब समुद्रविजय के अंगजात (पुत्र) उस राजपुत्र (रथनेमि) ने भी राजीमती को भयभीत और कांपती हुई देख कर इस प्रकार वचन कहा ३७. रहनेमी अहं भद्दे! सुरूवे! चारुभासिणि!। ममं भयाहि सुयणू! न तें पीला भविस्सई॥ [३७] (रथनेमि)—'हे भद्रे ! हे सुन्दरि! मैं रथनेमि हूँ। हे मधुरभाषिणी! तु मुझे (पति रूप में) स्वीकार कर। हे सुतनु ! (ऐसा करने से) तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।' ३८. एहि ता भुंजिमो भोए माणुस्सं खुसुदुल्लहं। भुत्तभोगा तओ पच्छा जिणमग्गं चरिस्समो।। ___ [३८] 'निश्चित ही मनुष्यजन्म अतिदुर्लभ है। आओ, हम भोगों को भोगें। भुक्तभोगी होकर उसके पश्चात् हम जिनमार्ग (सर्वविरतिचारित्र) का आचरण करेंगे।' ३९. दह्ण रहनेमिं तं भग्गुजोयपराइयं। राईमई असम्भन्ना अप्पाणं संवरे तहिं ॥ [३९] संयम के प्रति भग्नोद्योग (निरुत्साह) एवं (भोगवासना या स्त्रीपरीषह से) पराजित रथनेमि
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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