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बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय
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भी नेमिनाथप्रभु का ध्यान करती हुई घर में रही और उग्र तप करने तथा नेमिनाथ भगवान् पर दीक्षा लेने तथा तीर्थस्थापना करने की प्रतीक्षा करने लगी।
___इधर नेमिनाथ का छोटा भाई रथनेमि राजीमती पर आसक्त था। रथनेमि ने राजीमती को स्वयं के पतिरूप में अंगीकार करने को कहा, परन्तु राजीमती ने स्पष्ट अस्वीकार करते हुए कहा—'मैं उनके द्वारा वमन की हुई हूँ। तुम वमन की हुई वस्तु का उपभोग करोगे तो श्वानतुल्य होगे। मैं तुम्हें नहीं चाहती।' इस पर रथनेमि निराश होकर चला गया।
___इधर नेमिनाथ भगवान् दीक्षित होने के बाद ५४ दिन तक छमस्थ अवस्था में अनेक ग्रामों में विचरण करते रहे और फिर रैवताचल पर्वत पर आए। वहाँ प्रभु तेले का तप करके शुक्लध्यान में मग्न हो गए। उस समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सभी इन्द्र अपने-अपने देवगणों सहित वहाँ आए। मनोहर समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मदेशना दी। प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ जान कर बलभद्र, श्रीकृष्ण, राजीमती, दशार्ह आदि यादवगण तथा अन्य साधारण जन रैवतक पर्वत पर पहुँचे । वन्दन करके यथायोग्य स्थान पर बैठकर धर्मदेशना सुनी। अनेक राजाओं, साधारण जनों तथा महिलाओं ने प्रतिबुद्ध होकर प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। अनेकों ने श्रावक व्रत अंगीकार किये। तत्पश्चात् रथनेमि ने भी विरक्त होकर प्रभु से दीक्षा ली तथा राजीमती ने भी अनेक कन्याओं सहित दीक्षा ग्रहण की।
नीहासा निराणंदा सोगेण उ समुत्थया-राजीमती की हँसी (प्रसन्नता), खुशी एवं आनन्द समाप्त हो गया, वह शोक से स्तब्ध हो गई।२
सेयं पव्वइउं मम–राजीमती का आशय यह है कि अब तो मेरे लिए प्रव्रज्या ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है, जिससे कि मैं फिर अन्य जन्म में भी इस तरह दु:खी न होऊँ। तत्पश्चात् विरक्त राजीमती तब तक घर में ही तप करती रही, जब तक भगवान् अन्यत्र विहार करके पुनः वहाँ (रैवतकगिरि पर) नहीं आ गए। भगवान् को केवलज्ञान होते ही उनकी देशना सुनकर अधिक वैराग्यवती होकर वह प्रव्रजित हो गई।
कुच्च-फणग-पसाहिए-कूर्च का अर्थ है—गूढ़ और उलझे हुए केशों को अलग-अलग करने वाला बांस से निर्मित विशेष कंघा और फणक का अर्थ भी एक प्रकार का कंघा है, इनसे राजीमती के बाल संवारे हुए थे।
ववस्सिया–श्रमणधर्म की आराधना करने के लिए कृतसंकल्प (- कटिबद्ध)।' १. (क) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद, जै. ध. प्र. सभा, भावनगर से प्रकाशित) पृ. १४९, १५१ से १५५ तक का सारांश
(ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ७७३ से ७७८ तथा ७८७ से ७९२ तक का सारांश
(ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ४९२-४९३ २. वही, पत्र ४९३ ३. श्रेय. अतिशयप्रशस्यं 'प्रव्रजितुं'-प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुं मम, येनाऽन्यजन्मन्यपि नैवं दुःखभागिनी भवेयम् इति भावः । इत्थं
चासौ तावदवस्थिता, यावदन्यत्र प्रविहृत्य तत्रैव भगवानाजगाम । तत उत्पन्नकेवलस्य भगवतो निशम्य देशनां विशेषत
उत्पन्नवैराग्या . । -बृहद्वृत्ति पत्र ४९३ ४. 'कूर्ची-गूढकेशोन्मोचको वंशमयः, फणक:-केकतकः।-बृहबृत्ति पत्र ४९३ ५. व्यवसिता-अध्यवसिता सती धर्म विधातुमिति शेषः। -वही, पत्र ४९३