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बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय
३५१ विवेचन—सयपरिसा-यह 'देवों' का विशेषण है। सपरिषद् अर्थात् बाह्य, मध्यम और आभ्यान्तर, इन तीनों परिषदों से सहित।
निक्खमणं काउं—निष्क्रमणमहिमा या निष्क्रमणमहोत्सव करने के लिए। सीयारयणं-शिविकारत्न-यह देवनिर्मित 'उत्तरकुरु' नाम की श्रेष्ठ शिविका थी। अहि निक्खमई-श्रमणदीक्षा ग्रहण की या श्रमणधर्म में प्रव्रजित हुए।
समाहिओ-समाहित (समाधिसम्पन्न) शब्द अरिष्टनेमि का विशेषण है। इसका तात्पर्य यह है कि 'मुझे यावज्जीवन तक समस्त सावध व्यापार नहीं करना है' इस प्रकार की प्रतिज्ञा से युक्त हुए।
रथ लौटाने से लेकर द्वारका में आगमन तक-पशु-पक्षियों को बन्धनमुक्त करवा कर ज्यों ही रथ वापिस लौटाया, त्यों ही मन में अभिनिष्क्रमण का विचार आते ही सारस्वतादि नौ प्रकार के लोकान्तिक देवों ने आकर भगवान् को प्रबोधित किया—'भगवन्! दीक्षा लेकर तीर्थप्रवर्तन कीजिए।' इसी समय शिवा रानी और समुद्रविजय राजा आँखों से अश्रु बहाते हुए समझाने लगे—'वत्स! यों विवाह का त्याग करने में हमें तथा कष्ण आदि यादवों को कितना खेद होगा? तेरे लिए उग्रसेन राजा से श्रीकृष्ण ने स्वयं जा कर उनकी पत्री की याचना की थी। वह अब कैसे अपना मुख दिखायेगा? राजीमती की क्या दशा होगी? पतिव्रता स्त्री एक बार मन से भी जिसको पतिरूप में वरणकर लेती है, फिर जीवन भर दूसरा पति नहीं करती। अतः हमारे अनुरोध को स्वीकार कर तू विवाह कर ले।' भगवान् ने कहा – 'हे पूज्यो! आप यह आग्रह छोड़ दें। प्रियजनों को सदैव हितकार्य में ही प्रेरणा देनी चाहिए। स्त्रीसंग मुमुक्षु के लिए योग्य नहीं है। प्रारम्भ में सुन्दर और परिणाम में दारुण कार्य के लिए कोई भी बुद्धिमान् मुमुक्षु प्रयत्न नहीं करता।' इसके पश्चात् समागत लोकान्तिक देवों ने भी समुद्रविजय आदि दशा) से कहा - 'आप सब भाग्यशाली हैं कि आपके कुल में ऐसे महापुरुष पैदा हुए हैं। ये भगवान् दीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञान पाकर चिरकाल तक तीर्थप्रवर्तन करके जगत् को आनन्द देने वाले हैं। अतः आप खेद छोड़ कर हर्ष मनाइए।' ___ इस प्रकार देवों के वचन सुनकर सभी हर्षित हुए।
भगवान् सहित सभी यादवगण द्वारका आए। भगवान् स्व-भवन में पहुँचे। उसी दिन से दीक्षा का संकल्प कर लिया। सांवत्सरिक दान देने लगे और तत्पश्चात् रैवतक (उज्जयंत) गिरि पर स्थित सहस्राम्रवन में जा कर दीक्षा ग्रहण की। स्वयं पंचमुष्टि लोच किया, आजीवन सामायिकव्रत अंगीकार किया। कृष्ण आदि सभी यादव आशीर्वचन कह कर वहाँ से वापस लौटे।२
इसके पश्चात् भगवान् ने केवलज्ञान होने पर तीर्थस्थापना की, आदि वर्णन समझ लेना चाहिए। प्रथम शोकमग्न और तत्पश्चात् प्रव्रजित राजीमती
२८. सोऊण रायकना पव्वज सा जिणस्स उ।
___ नीहासा य निराणन्दा सोगेण उ समुच्छिया।। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४९२ २. (क) उत्तरा, (गुजराती अनुवाद, जै. ध. प्र. सभा, भावनगर से प्रकाशित), पत्र १५१
(ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ.७७०-७७१ (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ४९२ : 'इह तु वन्दिकाचार्यः सत्त्वमोचनसमये सारस्वतादिप्रबोधन, भवनगमन-महादानानन्तरं
निष्क्रमणाय पुरीनिर्गममुपवर्णयाम्बभूवेति सूत्रसप्तकार्थः।'