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________________ उत्तराध्ययन /४४ बहुश्रुतता : एक चिन्तन ग्यारहवें अध्ययन में बहुश्रुत की भाव-पूजा का निरूपण है। इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन का नाम "बहुश्रुत पूजा" है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने बहुश्रुत का अर्थ चतुर्दशपूर्वी किया है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत के गुणों का वर्णन है। यों बहुश्रुत के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन भेद किये हैं। जघन्य-निशीथशास्त्र का ज्ञाता, मध्यम-निशीथ से लेकर चौदह पूर्व के पहले तक का ज्ञाता और उत्कृष्ट -चौदहपूर्वो का वेत्ता। प्रस्तुत अध्ययन में विविध उपमाओं से तेजस्वी व्यक्तित्व को उभारा गया है। वस्तुतः ये उपमाएँ इतनी वास्तविक हैं कि पढ़तेपढ़ते पाठक का सिर सहज ही श्रद्धा से बहुश्रुत के चरणों में नत हो जाता है। बहुश्रुतता प्राप्त होती है-विनय से। विनीत व्यक्ति को प्राप्त करके ही श्रुत फलता और फूलता है। जिसमें क्रोध, प्रमाद, रोग, आलस्य और स्तब्धता ये पांच विघ्न हैं, वह बहुश्रुतता प्राप्त नहीं कर सकता। विनीत व्यक्ति ही बहुश्रुतता का पूर्ण अधिकारी बारहवें अध्ययन में मुनि हरिकेशबल के सम्बन्ध में वर्णन है। हरिकेश चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए थे। किन्तु तप के दिव्य प्रभाव से वे देवताओं के द्वारा भी वन्दनीय बन गये थे। प्रस्तुत अध्ययन में दान के लिए सुपात्र कौन है, इस सम्बन्ध में कहा है जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह की प्रधानता है, वह दान का पात्र नहीं है। स्नान के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है। हरिकेश मुनि ने ब्राह्मणों से कहा –बाह्य स्नान से आत्मशुद्धि नहीं होती, क्योंकि वैदिकपरम्परा में जलस्नान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया था। हरिकेशबल मुनि से पूछा गया आपका जलाशय कौन-सा है, शान्तितीर्थ कौन-सा है, आप कहाँ पर स्नान कर कर्मरज को धोते हैं। मुनि ने कहा-अकलुषित एवं आत्मा के प्रसन्न लेश्या वाला धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य मेरा शान्तितीर्थ है। जहाँ पर स्नान कर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूँ। यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा इष्ट है। यह महा स्नान है, अत: ऋषियों के लिए प्रशस्त है। इस धर्मनद में स्नान किये हुए महर्षि विमल, विशुद्ध होकर उत्तम गति (मुक्ति) को प्राप्त हुए हैं। निर्ग्रन्थपरम्परा में आत्मशुद्धि के लिए बाह्य स्नान को स्थान नहीं दिया गया है। एकदण्डी, त्रिदण्डी परिव्राजक स्नानशील और शुचिवादी थे।१२४ आचार्य संघदासगणी ने त्रिदण्डी परिव्राजक को श्रमण कहा है।२५ आचार्य शीलांक ने भी उसे श्रमण माना है।१२६ आचार्य वट्टकेर ने तापस, परिव्राजक, एक दण्डी, त्रिदण्डी आदि को श्रमण कहा है।१२७ ये श्रमण जल-स्नान को महत्त्व देते थे, किन्तु निर्ग्रन्थपरम्परा ने स्नान को अनाचीर्ण कहा है। बौद्धपरम्परा में पहले स्नान का निषेध नहीं था। बौद्ध भिक्षु नदियों में स्नान करते थे। एक बार बौद्ध भिक्षु 'तपोदा' नदी में स्नान कर रहे थे। राजा श्रेणिय बिम्बिसार वहाँ स्नान के लिए पहुंचे। भिक्षुओं को स्नान करते देखकर वे एक ओर रहकर प्रतीक्षा करते रहे। रात्रि होने पर भी भिक्षु स्नान करते रहे। भिक्षुओं के जाने के बाद श्रेणिय बिम्बिसार ने स्नान किया। नगर के द्वार बन्द हो चुके थे। अतः राजा को वह रात बाहर ही बितानी पड़ी। प्रात: गन्ध-विलेपन कर राजा बुद्ध के पास पहुँचा। तथागत ने पूछा-आज इतने शीघ्र गन्धविलेपन कैसे हुआ? राजा ने सारी बात कही। बुद्ध ने राजा को प्रसन्न कर रवाना किया। तथागत बुद्ध ने भिक्षुओं को बुलाकर कहा-तुम राजा के देखने के पश्चात् भी स्नान करते रहे, यह ठीक नहीं किया। उन्होंने नियम बनाया जो भिक्षु पन्द्रह दिन से पूर्व १२४. परिहत्ता-परिव्राजका एकदण्डित्रिदण्ड्यादयः नानशीलाः शुचिवादिनः। -मूलाचार, पंचाचाराधिकार ६२, वृत्ति १२५. निशीथसूत्र, भाग २, पृष्ठ २, ३, ३३२ १२६. सूत्रकृतांग - १/१/३/८ वृत्ति १२७. मूलाचार, पंचाचाराधिकार ६२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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