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समीक्षात्मक अध्ययन / ४३
तुलना कीजिए—
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- विष्णुपुराण ४ / १० / १०
" यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । सर्वं तन्नालमेकस्य, तस्माद् विद्वाञ्छमं चरेत् ॥' " यत् पृथिव्यां ब्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । नालमेकस्य तत् सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति ॥" " यद् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः । एकस्यापि न पर्याप्तं, तदित्यवितृष्णां त्यजेत्॥" वैदिकदृष्टि में गृहस्थाश्रम को प्रमुख माना गया है। इन्द्र ने कहा— राजर्षि ! इस महान् आश्रम को छोड़ कर तुम अन्य आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं है। यहीं पर रहकर धर्म का पोषण करो एवं पौषध में रत रहो ! नमि राजर्षि ने कहा— हे ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करके पारणा में कुशाग्र मात्र आहार ग्रहण करने वाला गृहस्थ मुनिधर्म की सोलहवीं कला भी प्राप्त नहीं कर सकता। इस प्रकार गृहस्थजीवन की अपेक्षा श्रमणजीवन को श्रेष्ठ बताया गया है। अन्त में इन्द्र नमि राजर्षि के दृढ़ संकल्प को देखकर अपना असली रूप प्रकट करता है और नमि राजर्षि की स्तुति करता है। प्रस्तुत अध्ययन में ब्राह्मण-संस्कृति और श्रमण-संस्कृति का पार्थक्य प्रकट किया गया है।
जागरण का सन्देश
दसवें अध्ययन में भगवान् महावीर द्वारा गौतम को किया गया उद्बोधन संकलित है। गौतम के माध्यम से सभी श्रमणों को उद्बोधन दिया गया है। जीवन की अस्थिरता, मानवभव की दुर्लभता, शरीर और इन्द्रियों की धीरे-धीरे क्षीणता तथा त्यक्त कामभोगों को पुनः न ग्रहण करने की शिक्षा दी गई है। जीवन की नश्वरता दुमपत्र की उपमा से समझाई गई है। यह उपमा अनुयोगद्वार आदि में भी प्रयुक्त हुई है वहाँ पर कहा है—पके हुए पत्तों को गिरते देख कोपलें खिलखिला कर हँस पड़ीं। तब पके हुए पत्तों ने कहा— जहा ठहरो! एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी जो आज हम पर बीत रही है। १२३ इस उपमा का उपयोग परवर्ती साहित्य में कवियों ने जमकर किया है।
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-अनुशासनपर्व ९३ / ४०
— उद्योगपर्व ३९/८४
दसवें अध्ययन में बताया है— जैसे शरदऋतु का रक्त कमल जल में लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार भगवान् महावीर ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा— तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बन! यही बात धम्मपद में भी कही गई है। भाव एक है, पर भाषा में कुछ परिवर्तन है । उदाहरण के रूप में देखिए
"वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम! मा पमायए ॥ " तुलना कीजिए—
"उच्छिन्द सिनेहमत्तनो, कुमुदं सारदिकं व पाणिना । सन्तिमग्गमेव ब्रूहय, निब्बानं सुगतेन देसितं ॥"
१२३. परिजूरियपेरंतं, चलंतबिंटं पडतनिच्छीरं ।
पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥ १२० ॥
जह तुम्भे तह अम्हे, तुम्हेऽवि होहिहा जहा अम्हे ।
अप्पाहेई पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥ १२१ ॥ - अनुयोगद्वार, सूत्र १४६
- उत्तराध्ययनसूत्र १० / २८
- धम्मपद २०/१३