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________________ बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय ३४९ [१८] अनेक प्राणियों के विनाश से सम्बन्धित उसका (सारथि का) वचन सुन कर जीवों के प्रति करुणायुक्त होकर महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि (यों) चिन्तन करने लगे १९. जइ मज्झ कारणा एए हम्मिहिंति बहू जिया। न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई॥ [१९] 'यदि मेरे कारण से इन बहुत-से प्राणियों का वध होगा तो यह परलोक में मेरे लिए निःश्रेयस्कर (कल्याणकारी) नहीं होगा।' २०. सो कुण्डलाण जुयलं सुत्तगं च महायसो। आभरणाणि य सव्वाणि सारहिस्स पणामए॥ [२०] उन महान् यशस्वी (अरिष्टनेमि) ने कुण्डलयुगल, करधनी (सूत्रक) और समस्त अलंकार उतार कर सारथि को दे दिए। (और बिना विवाह किये ही रथ को वहाँ से लौटाने का आदेश दिया।) विवेचन जीवयंतं त संपत्ते—(१) जीवन के अन्त को प्राप्त-मरणासन्न । मंसट्ठा-(१) मांस अतिगृद्धि का कारण होने से मांसाहार के लिए अथवा (२) मांस से ही मांस बढ़ता है ' इस कहावत के अनुसार अविवेकी जनों द्वारा शरीर की मांसवृद्धि के लिए।२ महापन्ने—जिसकी प्रज्ञा महान् हो, वह महाप्रज्ञ है, आशय यह है कि भगवान् नेमिनाथ में मति, श्रुत और अवधि ज्ञान होने से वे महाप्रज्ञ थे।३ करुणा का स्रोत उमड़ पड़ा - सर्वप्रथम भयभीत एवं अत्यन्त दुःखित प्राणियों को देखते ही उनका करुणाशील हृदय पसीज उठा। फिर उन्होंने सारथी से पूछा और जब यह जाना कि मेरे विवाह के समय आने वाले अतिथियों को मांसभोज देने के लिए पशु-पक्षियों को बन्द किया गया है, तब तो और भी करुणाई हो उठे। अपने लिये इसे अकल्याणकर समझ कर उन्होंने विवाह न करना ही उचित समझा। फलतः उन्हें वहीं संसार से विरक्ति हो गई और वहीं से रथ को लौटा देने तथा बाड़ों और पिंजरों को खोल कर उन पशुपक्षियों को मुक्त कर देने का संकेत किया। यह कार्य सम्पन्न करते ही पारितोषिक के रूप में समस्त आभूषण सारथि को दे दिये। एक शंका : समाधान – प्रस्तुत अध्ययन की १०वीं गाथा में विवाह के लिए प्रस्थान करते समय गन्धहस्ती पर आरूढ होने का उल्लेख है और आगे १५वीं गाथा में सारथि से पूछने और उसके द्वारा आदेशानुकूल कार्य सम्पन्न करने पर पारितोषिक देने के प्रसंग में सारथि का उल्लेख है। इससे अरिष्टनेमि का रथारोहण अनुमित होता है। ऐसा पूर्वापर विरोध क्यों? बृहद्वृत्तिकार ने इसका समाधान करते हुए लिखा है-वरयात्रा १. 'जीवितस्यान्तो मरणमित्यर्थस्तं सम्प्राप्तानिव सम्प्राप्तान् अतिप्रत्यासन्नत्वात्तस्य, यद्वा जीवितस्यान्तःपर्यन्तवर्ती भागस्तमुक्तहेतोः सम्प्राप्तान्।' - बृहद्वृत्ति, ४९० मांसार्थ-मांसनिमित्तं च भक्षयितव्यान् मांसस्यैवातिगृद्धिहेतुत्वेन तद्भक्षणनिमित्तत्वादेवमुक्तं, यदि वा 'मांसेनैव मांसमुपचीयते' इति प्रवादतो मांसमुपचितं स्यादिति हेतो:- मांसार्थं भक्षयितव्यानविवेकिभिः। - वही, पत्र ४९१ ३. महती प्रज्ञा - प्रक्रमान्मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयात्मिका यस्याऽसौ महाप्रज्ञः। - बृहवृत्ति, पत्र ४९१ बहवृत्ति, पत्र ४९१ : न तु निःश्रेयसं कल्याणं परलोके भविष्यति, पापहेतुत्वादस्येति भावः। .............. एवं च विदिताकूतेन सारथिना मोचितेषु सत्त्वेषु पारितोषितोऽसौ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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