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उत्तराध्ययनसूत्र
सव्वोसहीहिं०- बृहवृत्ति के अनुसार-जया, विजया, ऋद्धि, वृद्धि आदि समस्त औषधियों से अरिष्टनेमि को नहलाया गया।
दसारचक्केण समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तिमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव; ये दस भाई, जो यादव जाति के थे, इन का समूह दशार (दशाह-चक्र) कहलाता था। यदुप्रमुख ये दश अर्ह अर्थात् पूज्य थे, बड़े थे, इसलिए इन्हें 'दशाह' कहा गया।
वण्हिपुंगवो-वृष्णिकुल में प्रधान श्री अरिष्टनेमि थे। अरिष्टनेमि का कुल 'अन्धकवृष्णि' नाम से प्रसिद्ध था, क्योंकि अन्धक और वृष्णि, ये दो भाई थे। वृष्णि अरिष्टनेमि के पितामह थे। परन्तु पुराणों के अनुसार अन्धकवृष्णि (या अन्धकवृष्टि) एक ही व्यक्ति का नाम है,जो समुद्रविजय के पिता थे। दशवैकालिक सूत्र में तथा इसी अध्ययन की ५३ वीं गाथा में नेमिनाथ के कुल को अन्धकवृष्णि कुल बताया गया है। अवरुद्ध आर्त्त पशुपक्षियों को देख कर करुणामग्न अरिष्टनेमि
१४. अह सो तत्थ निजन्तो दिस्स पाणे भयदुए।
वाडेहिं पंजरेहिं च सन्निरुद्धे सुदुक्खिए॥ [१४] तदनन्तर उन्होंने (अरिष्टनेमि ने) वहाँ (मण्डप के समीप) जाते हुए बाड़ों और पिंजरों में बन्द किये गए, भयत्रस्त और अतिदुःखित प्राणियों को देखा।
१५. जीवियन्तं तु संपत्ते मंसट्ठा भक्खियव्वए।
पासेत्ता से महापन्ने सारहिं इणमब्बवी॥ [१५] वे जीवन की अन्तिम स्थिति में पहुँचे हुए थे, और मांसभोजन के लिए खाये जाने वाले थे। उन्हें देख कर उन महाप्रज्ञावान् अरिष्टनेमि ने सारथि (या पीलवान) से इस प्रकार कहा
१६. कस्स अट्ठा इमे पाणा एए सव्वे सुहेसिणो।
वाडेहिं पंजरहिं च सन्निरुद्धा य अच्छहिं? । [१६] (अरिष्टनेमि-) ये सब सुखार्थी प्राणी किस प्रयोजन के लिए बाड़ों और पिंजरों में बन्द किये गए हैं?
१७. अह सारही तओ भणइ एए भद्दा उ पाणिणो।
तुझं विवाहकजंमि भोयावेउं बहुं जणं॥ [१७] तब सारथि (इस प्रकार) बोला—ये भद्र प्राणी आपके विवाहकार्य में बहुत-से लोगों को मांसभोजन कराने के लिए (यहाँ रोके गए) हैं।
१८. सोऊण तस्स वयणं बहुपाणि—विणासणं।
चिन्तेइ से महापन्ने साणुक्कोसे जिएहि उ॥ सर्वाश्च ता औषधयश्च–जयाविजयर्द्धिवद्धयादयः सर्वोषधयस्ताभिः स्त्रपित: अभिषिक्तः। -बृहवृत्ति, पत्र ४९० २. (क) 'दसारचक्केणं ति दशार्हचक्रेण यदुसमूहेन।' -बृहवृत्ति, पत्र ४९०
(ख) 'दश च तेऽश्चि -पूज्या इति दशार्हाः।' -अन्तकृद्दशांग. १/१ वृत्ति ३. (क) वृष्णिपुंगवः यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिति यावत्। -बृहद्वृत्ति, पत्र ४९०
(ख) दशवैकालिक २/८ (ग) उत्तराध्ययन अ. २२, गा. ४३ (घ) उत्तरपुराण ७०/९२-९४