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विवाह
बाईसवाँ अध्ययन : रथनेमीय
३४७ समचतुरस्त्रसंस्थान संस्थान का अर्थ है—शरीर का आकार (ढांचा)। संस्थान भी ६ प्रकार के होते हैं—(१) समचतुरस्र, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल, (३) सादि, (४) वामन, (५) कुब्जक और (६) हुण्डक।
पालथी मार कर बैठने पर चारों कोण सम हों तो वह समचतुरस्त्र नामक सर्वश्रेष्ठ संस्थान है। अरिष्टनेमि के लिए केशव द्वारा राजीमती की याचना की पृष्ठभूमि-कथा इस प्रकार है
एकबार अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण की आयुधशाला में जा पहुंचे। उन्होंने धनुष और गदा को अनायास ही उठा लिया और जब पाञ्चजन्य शंख फूंका तब तो चारों ओर तहलका मच गया। श्रीकृष्ण भी क्षुब्ध हो उठे
और जब उन्होंने यह सुना कि शंख अरिष्टनेमि ने बजाया है, तब आशंकित हो उठे कि कहीं नेमिकुमार हमारा राज्य न ले लें। बलभद्र ने इस शंका का निवारण भी किया, फिर भी कृष्ण शंकाशील बने रहे। उन्होंने एक दिन नेमिकुमार से शौर्यपरीक्षण के लिए युद्ध करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु नेमिकुमार ने कहा-बलपरीक्षण तो बाहुयद्ध से भी हो सकता है। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की भुजा को उन्होंने अनायास ही नमा दिया, किन्तु श्रीकृष्ण नेमिकुमार के भुजदण्ड को नहीं नमा सके। इसके पश्चात् एक दिन श्रीसमुद्रविजय ने श्रीकृष्ण से नेमिकुमार को विवाह के लिए सहमत करने को कहा। उन्होंने अपनी पटरानियों से वसन्तोत्सव के दिन
मिकुमार को विभिन्न युक्तियों से विवाह करने के लिए अनुरोध किया, मगर वे मौन रहे। फिर बलदेव और श्रीकृष्ण ने भी विवाह कर लेने का आग्रह किया। अरिष्टनेमि के मंदहास्य को सबने विवाह की स्वीकति का लक्षण माना।
श्रीसमुद्रविजय भी यह संवाद सुन कर आनन्दित हो उठे। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण स्वयं उग्रसेन के पास गए और राजीमती का अरिष्टनेमि के साथ विवाह कर देने की प्रार्थना की। श्री उग्रसेन को यह जान कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्रीकृष्ण की याचना इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि यदि अरिष्टनेमि कुमार मेरे यहाँ पधारें तो मैं अपनी कन्या का उनके साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण करना स्वीकार करता हूँ। उग्रसेन की स्वीकृति पाते ही श्रीकृष्ण ने क्रौष्ठिकी नैमित्तिक से विवाह मुहूर्त निकलवाया। विवाहमुहूर्त निश्चित होते ही श्रीकृष्ण ने सारी तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी, जिसका वर्णन मूलपाठ में है।
दिव्वजुयलपरिहिओ-प्राचीनकाल में दो ही वस्त्र पहने जाते थे—एक अन्तरीय-नीचे पहनने के लिए धोती और एक उत्तरीय—ऊपर ओढ़ने के लिए चादर। इसे ही यहाँ 'दिव्ययुगल' कहा गया है।
गंधहत्थी : परिचय और स्वरूप-गन्धहस्ती, सब हाथियों से अधिक शक्तिशाली, बुद्धिमान् और निर्भय होता है। इसकी गन्ध से दूसरे हाथियों का मद झरने लगता है और वे डर के मारे भाग जाते हैं। वासुदेव (कृष्ण) का यह ज्येष्ठ पट्टहस्ती था।
कयकोउयमंगलो : तात्पर्य—विवाह से पूर्व वर के ललाट से मूसलस्पर्श कराना इत्यादि कौतुक और दधि, अक्षत, दूब, चन्दन आदि द्रव्यों का उपयोग करना मंगल कहलाता था। १. (क) प्रज्ञापना. पद २३/२, सूत्र २९३ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भाग.३, पृ. ७३७ २. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ. ७३९ से ७५६ तक का सारांश (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४९० ३. (क) उत्तरा. अनुवाद टिप्पण (साध्वी चन्दना), पृ. ४४०
(ख) दिव्ययुगलमिति प्रस्तावाद् दूष्ययुगलं। -बृहवृत्ति, पत्र ४९० (क) वासुदेवस्य सम्बन्धिनमिति गम्यते । ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम-अतिशयप्रशस्यमतिवद्धं वा गुणैः पद्रस्तिनमित्यर्थः। (ख) कृतकौतुकमंगल इत्यत्र कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि, मंगलानि च दध्यक्षतदूर्वाचन्दनादीनि ।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ४९०