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८.
अहाह जणओ तीसे वासुदेवं महिड्ढियं । इहागच्छउ कुमारो जा मे कन्नं दलामऽहं ॥
[८] (याचना करने के पश्चात्) उस (राजीमती) के पिता ने महान् ऋद्धिशाली वासुदेव से कहा— ' (नेमि) कुमार यहाँ आएँ तो मैं अपनी कन्या उन्हें प्रदान करूँगा ।'
९.
सव्वोसहीहि हविओ कयकोउयमंगलो | दिव्वजुयलपरिहिओ आभरणेहिं विभूसिओ ॥
उत्तराध्ययनसूत्र
[९] (इसके पश्चात्) अरिष्टनेमि को समस्त औषधियों के जल से स्नान कराया गया, ( यथाविधि ) कौतुक और मंगल किये गए; दिव्य वस्त्र-युगल पहनाया गया और अलंकारों से विभूषित किया गया। १०. मत्तं च गन्धहत्थिं वासुदेवस्स जेट्ठगं । आरूढो सोहए अहियं सिरे चूडामणी जहा ॥
[१०] वे दूल्हा के रूप में वासुदेव के सबसे बड़े मत्त गन्धहस्ती पर जब आरूढ हुए (चढ़े) तो मस्तक पर चूडामणि के समान अत्यधिक सुशोभित हुए ।
११. अह ऊसिएण छत्तेण चामराहि य सोहिए। दसारचक्केण य सो सव्वओ परिवारिओ ॥
[११] तत्पश्चात् वे अरिष्टनेमि मस्तक पर धारण किये हुए ऊँचे छत्र से तथा (ढुलाते हुए) चामरों सुशोभित थे और दशार्हचक्र ( यदुवंश के प्रसिद्ध क्षत्रियों के समूह ) से चारों ओर से परिवृत (घिरे हुए थे।
१२. चउरंगिणीए सेनाए रइयाए जहक्कमं ।
तुरियाण सन्निनाएण दिव्वेण गगणं फुसे ॥
[१२] चतुरंगिणी सेना यथाक्रम से नियोजित की गई थी, वाद्यों का गगनस्पर्शी दिव्य निनाद होने लगा। १३. एयारिसीइ इड्डीए जुइए उत्तिमाइ य।
नियगाओ भवणाओ निज्जाओ वण्हिपुंगवो ॥
[१३] ऐसी उत्तम ऋद्धि और उत्तम द्युति सहित वह वृष्णिपुंगव (अरिष्टनेमि) अपने भवन से निकले।
विवेचन — वज्रऋषभनाराचसंहनन — संहनन जैनसिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है— अस्थिबन्धन । समस्त जीवों का संहनन ६ कोटि का होता है— (१) वज्रऋषभनाराच, (२) ऋषभनाराच, (३) नाराच, (४) अर्धनाराच, (५) कीलक और (६) असंप्राप्तसृपाटिका। सर्वोत्तम संहनन वज्रऋषभनाराच है, जो उत्तम पुरुषों का होता है। वज्रऋषभनाराच संहनन वज्र-सा सुदृढ अस्थिबन्धन होता है, जिसमें शरीर
संधि अंगों की दोनों हड्डियाँ परस्पर आंटी लगाए हुए हों, उन पर तीसरी हड्डी का वेष्टन — लपेट हो और चौथी हड्डी की कील उन तीनों को भेद रही हो। यहाँ कीलक के आकार वाली हड्डी का नाम वज्र है, पट्टाकार हड्डी का नाम ऋषभ है और उभयतः मर्कटबन्ध का नाम नाराच है, इनसे शरीर की जो रचना होती है, वह वज्रऋषभनाराच है।