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१६. अणेगछन्दा इह माणवेहिं जे भावओ संपगरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइन्ति भीमा दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ।।
[१६] इस संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के छन्द (अभिप्राय) होते हैं । (कर्मवशगत) भिक्षु भी जिन्हें (अभिप्रायों को) भाव (मन) से करता है । अतः उसमें ( साधुजीवन में) भयोत्पादक होने से भयानक तथा अतिरौद्र (भीम) देवसम्बन्धी, मनुष्यसम्बन्धी और तिर्यञ्चसम्बन्धी उपसर्गों को सहन करे । १७. परीसहा दुव्विसहा अणेगे सीयन्ति जत्था बहुकायरा नरा ।
ते तत्थे पत्ते न वहिज्ज भिक्खू संगामसीसे इव नागराया ।।
[१७] अनके दुर्विषह (दुःख से सहे जा सकें, ऐसे ) परीषह प्राप्त होने पर बहुत से कायर मनुष्य खिन्न हो जाते हैं। किन्तु भिक्षु परीषह प्राप्त होने पर संग्राम में आगे रहनेवाले नागराज (हाथी) की तरह व्यथित (क्षुब्ध) न हो।
१८. सीओसिणा दंसमसा य फासा आयंका विविहा फुसन्ति देहं । अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा रयाइं खेवेज्ज पुरेकडाई ||
[१८] शीत, उष्ण, दंश-मशक तथा तृणस्पर्श और अन्य विविध प्रकार के आतंक जब साधु के शरीर को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न करते हुए समभाव से उन्हें सहन करे और पूर्वकृत कर्मों (रजों) का क्षय करे।
१९. पहाय रागं च तहेव दोसं मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो । मेरु व्व वाएण अकम्पमाणो परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ॥
उत्तराध्ययनसूत्र
[१९] विचक्षण साधु राग और द्वेष को तथा मोह को निरन्तर छोड़ कर वायु से अकम्पित रहने वाले मेरुपर्वत के समान आत्मगुप्त बन कर परीषहों को सहन करे ।
२०. अणुन्नए नावणए महेसी न यावि पूयं गरहं च संजए । उज्जुभावं पडव संजए निव्वाणमग्गं विरए उवे ॥
[२०] पूजा-प्रतिष्ठा में (गर्व से) उत्तुंग और गर्हा में अधोमुख न होने वाला संयमी महर्षि पूजा और गर्दा में आसक्त न हो। वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाणमार्ग के निकट पहुँच जाता है।
२१. अरइरइसहे पहीणसंथवे विरए आयहिए पहाणवं ।
परमट्ठपएहिं चिट्ठई छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥
[२१] जो अरति और रति को सहन करता है, संसारी जनों के परिचय (संसर्ग) से दूर रहता है, विरत है, आत्महित का साधक है, प्रधान ( संयमवान्) है, शोकरहित है, ममत्त्व - रहित है, अकिंचन है, वह परमार्थ पदों (- सम्यग्दर्शन आदि साधनों) में स्थित होता है ।
२२. विवित्तलयणाइ भएज ताई निरोवलेवाइ असंथडाई ।
इसीहि चिण्णाइ महायसेहिं काएण फासेज परीसहाई ॥