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________________ ३३७ इक्कीसवाँ अध्ययन : समुद्रपालीय बज्झगं— ( १ ) बाह्यगंi-नगर के बहिर्वर्ती वध्यप्रदेश की ओर ले जाते हैं, अथवा (२) वध्यगम् - वध्यभूमि की ओर ले जाते हुए । संविग्गो— संवेग अर्थात् मुक्ति की अभिलाषा को प्राप्त - संविग्न । १ भगवं : तात्पर्य — 'भगवान्' विशेषण समुद्रपाल के लिए यहाँ प्रयुक्त है, उसका यहाँ प्रासंगिक अर्थ · माहात्म्यवान् । भगवान् शब्द माहात्म्य अर्थ में प्रयुक्त देखा गया है । २ महर्षि समुद्रपाल द्वारा आत्मा को स्वयं स्फुरित मुनिधर्मशिक्षा ११. जहित्तु संगं च महाकिलेसं महन्तमोह केसिणं भयावहं । परियायधम्मं चऽभिरोयएज्जा वयाणि सीलाणि परीसहे य ।। [११] दीक्षित होने पर मुनि महाक्लेशकारी महामोह और पूर्ण भयजनक संग (आसक्ति) का त्याग करके पर्यायधर्म ( - चारित्रधर्म) में, व्रत में, शील में और परीषहों में ( परीषहों को समभावपूर्वक सहने में) निरत रहे । १२. अहिंस सच्चं च अतेणगं च तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज धम्मं जिणदेसियं विऊ ।। [१२] तत्वज्ञ मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, इन पंच महाव्रतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे । १३. सव्वेहिं भूएहिं दयाणुकम्पी खन्तिक्खमे संजय बम्भयारी । सावज्जलोगं परिवज्जयन्तो चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइन्दिए । । [१३] इन्द्रियों को सम्यक् रूप से वश करने वाला भिक्षु - (साधु) समस्त प्राणियों के प्रति दया से अनुकम्पाशील रहे, क्षमा में दुर्वचनादि सहन करने वाला हो, संयत (संयमशील ) एवं ब्रह्मचर्य धारी हो । वह सावद्ययोग (पापयुक्त प्रवृत्तियों) का परित्याग करता हुआ विचरण करे । १४. काले कालं विहरेज्ज रट्ठे बलाबलं जाणिय अप्पणो य । सीहो व सद्देण न संतसेज्जा वयजोग सुच्चा न असब्भमाहु ।। [१४] साधु यथायोग्य कालानुसार अपने बलाबल ( शक्ति - अशक्ति) को जानकर राष्ट्रों में विहार करे । सिंह की भांति, भयोत्पादक शब्द सुन कर संत्रस्त न हो । अशुभ (या असभ्य) वचनयोग सुन कर बदले में असभ्य वचन न कहे । १५. उवेहमाणो उ परिव्वज्जा पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा । न सव्व सव्वत्थऽभिरोयएज्जा न यावि पूयं गरहं च संजए।। [१५] संयमी साधक प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे। वह प्रिय और अप्रिय (अर्थात् — अनुकूल और प्रतिकूल) सब ( परीषहों) को सहन करे । सर्वत्र सबकी अभिलाषा न करे तथा पूजा और गर्हा दोनों पर भी ध्यान न दे। १. 'बाह्यं नगरबहिर्वर्त्तिप्रदेशं गच्छतीति बाह्यगस्तम् कोऽर्थ : ? बहिर्निष्क्रामन्तं; यद्वा वध्यगम् - इह वध्यशब्देनोपचारात् वध्यभूमिरुक्ता ।" - बृहद्वृत्ति, पत्र ४८३ - २. वही, पत्र ४८३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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