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उत्तराध्ययनसूत्र
एक मात्र लाडला पुत्र समुद्रपाल अपने महल में दिव्य क्रीड़ा करने लगा। इस वर्णन से प्रतीत होता है कि पालित श्रावक ने समुद्रपाल को अभी तक व्यवसाय कार्य में नहीं लगाया था। १
बहत्तर कलाओं का प्रशिक्षण — प्राचीन काल में प्रत्येक सम्भ्रान्त नागरिक अपने पुत्र को ७२ कलाओं का प्रशिक्षण दिलाता था, जिससे वह प्रत्येक कार्य में दक्ष और स्वावलम्बी बन सके। शास्त्रों में यत्र-तत्र ७२ कलाओं का उल्लेख मिलता है। २
सुरूवे पियदंसणे – सुरूप का अर्थ है— आकृति और डीलडौल से सुन्दर तथा प्रियदर्शन का अर्थ है— सभी को आनन्द देने वाला । ३
समुद्रपाल की विरक्ति और दीक्षा
८.
अह अन्नया कयाई पासायालोयणे ठिओ । वज्झमण्डणसोभागं वज्झं पास वज्झगं ।।
[८] तत्पश्चात् एक दिन वह प्रासाद के आलोकन ( अर्थात् झरोखे) में बैठा था, (तभी) उसने वध्य के मण्डनों में शोभित एक वध्य (चोर) को नगर से बाहर ( वधस्थल की ओर) ले जाते हुए देखा । तं पासिऊण संविग्गो समुद्दपालो इणमब्बवी । अहोभा कम्माणं निज्जाणं पावगं इमं ।।
९.
[९] उसे देख कर संवेग को प्राप्त समुद्रपाल ने ( मन ही मन ) इस प्रकार कहा— अहो ( खेद है कि) अशुभकर्मों का यह पापरूप ( - अशुभ - दुःखद) निर्याण – परिणाम है।
१०. संबुद्धो सो तहिं भगवं परं संवेगमागओ ।
आपुच्छम्मापि पव्वए अणगारियं । ।
[१०] इस प्रकार वहाँ ( गवाक्ष में) बैठे हुए वह भगवान् (-माहात्म्यवान्) परम संवेग को प्राप्त हुआ और सम्बुद्ध हो गया । (फिर) उसने माता-पिता से पूछ कर उनकी अनुमति लेकर अनगारिता (- मुनिदीक्षा) अंगीकार की ।
विवेचना—वज्झमंडणसोभागं — वध्य—वध के योग्य व्यक्ति के मण्डनों— रक्तचन्दन, करवीर आदि से—शोभित । प्राचीन काल में मृत्युदण्ड योग्य व्यक्ति को लाल कपड़े पहनाए जाते थे, उसके शरीर पर लाल चन्दन का लेप किया जाता, उसके गले में लाल कनेर की माला पहनाई जाती थी और उसे सारे नगर में घुमाया जाता तथा उसको मृत्युदण्ड दिये जाने की घोषणा की जाती थी । इस प्रकार उसे वधस्थल की ओर ले जाया जाता था।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८३ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८३ ४. (क) वधमर्हति वध्यस्तस्य मण्डनानि रक्तचन्दनकरवीरादीनि तै: शोभा
• तत्कालोचितपरभागलक्षणा यस्यासौ
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वध्यमण्डनशोभाकरस्तं वध्यम् । — बृहद्वृत्ति, पत्र ४८३ (ख) "चोरो रक्तकणवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः ।” - सूत्रकृतांग, शीलांक. वृत्ति १ / ६, पत्र १५०
२. बहत्तर कलाओं के लिये देखिये, 'समवायांग', समवाय ७२
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