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इक्कीसवाँ अध्ययन : समुद्रपालीय
३३५ पिहुण्ड नगर में विवाह, समुद्रपाल का जन्म
३. पिहुण्डे ववहरन्तस्स वाणिओ देइ धूयरं।
तं ससत्तं पइगिज्झ सदेसमह पत्थिओ।। [३] पिहुण्ड नगर में व्यवसाय करते समय उसे (पालित श्रावक को) किसी वणिक् ने अपनी पुत्री प्रदान की। कुछ समय के पश्चात् अपनी सगर्भा पत्नी को लेकर उसने स्वदेश की ओर प्रस्थान किया।
४. अह पालियस्स घरणी समुददंमि पसवई।
अह दारए तहिं जाए ‘समुद्दपालि' त्ति नामए।। [४] पालित श्रावक की पत्नी ने समुद्र में ही पुत्र को जन्म दिया। वह बालक वहीं (समुद्र में) जन्मा, इस कारण उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा गया।
विवेचना–वाणिओ देई धूयरं—पिहुण्ड नगर में न्यायनीतिपूर्वक व्यापार करते हुए पालित श्रावक के गुणों से आकृष्ट होकर वहीं के निवासी वणिक् ने उसे कन्या दे दी। अर्थात्-वणिक् ने अपनी कन्या का विवाह पालित के साथ कर दिया। समुद्रपाल का संवर्द्धन, शिक्षण एवं पाणिग्रहण
५. खेमेण आगए चम्पं सावए वाणिए घरं।
__ संवड्ढई घरे तस्स दारए से सुहोइए।। [५] वह वणिक् श्रावक क्षेमकुशलपूर्वक चम्पापुरी में अपने घर आ गया। वह सुखोचित (सुखभोग के योग्य-सुकुमार) बालक उसके घर में भलीभांति बढ़ने लगा।
६. बावत्तरि कलाओ य सिक्खए नीइकोविए।
जोव्वणेण य संपन्ने सुरूवे पियदंसणे।। [६] वह बहत्तर कलाओं में शिक्षित तथा नीति में निपुण हो गया। यौवन से सम्पन्न (होकर) वह 'सुरूप' और देखने में प्रिय लगने लगा।
७. तस्स रूववइं भज्जं पिया आणेड़ रूविणीं।
पासाए कीलए रम्मे देवो दोगुन्दओ जहा।। [७] उसके पिता ने उसके लिए 'रूपिणी' नाम की रूपवती पत्नी ला दी। वह (अपनी पत्नी के साथ) दोगुन्दक देव की भांति रमणीय प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा।
विवेचन - समुद्रपाल का संवर्द्धन - प्रस्तुत गाथा ५-६ में समुद्रपाल का संवर्द्धनक्रम का उल्लेख है। घर में ही उसका लालन-पालन होता है, कुछ बड़ा होने पर वह कलाग्रहण के योग्य हुआ तो पिता ने उसे ७२ कलाओं का प्रशिक्षण दिलाया। कलाओं में प्रशिक्षित होने के साथ ही नीति (शास्त्र) में पण्डित हो गया। युवावस्था आते ही पिता ने एक सुन्दर सुशील कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। पिता का
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८३