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उत्तराध्ययनसूत्र
ऋषिध्वज (रजोहरणदि मुनिचिह्न) धारण करके अपनी जीविका चलाता (बढ़ाता है और असंयमी होते हुए भी अपने आपको संयमी कहता है; वह चिरकाल तक विनिघात (विनाश) को प्राप्त होता है ।
४४. विसं तु पीयं जह कालकूडं हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसे व धम्मो विसओववन्नो हणाड़ वेयाल इवाविवन्नो ॥
[४४] जैसे—पिया हुआ कालकूट विष तथा विपरीतरूप से पकड़ा हुआ शस्त्र, स्वयं का घातक होता है और अनियंत्रित वैताल भी विनाशकारी होता है, वैसे ही विषयविकारों से युक्त यह धर्म भी विनाश कर देता है।
४५. जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे निमित्त — कोऊहलसंपगाढे । कुहेडविज्जासवदारजीवी न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥
[४५] जो लक्षणशास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, जो निमित्तशास्त्र और कौतुक - कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य उत्पन्न करने वाली कुहेटक विद्याओं (जादूगरों के तमाशों) आश्रवद्वार ( कर्मबन्धन हेतु ) रूप जीविका करता है, वह उस कर्मफलभोग के समय किसी की शरण नहीं पा
सकता ।
४६. तमंतमेणेव उसे असीले सया दुही विप्परियासुवेइ ।
संधावई नरगतिरिक्खजोणिं मोणं विराहेत्तु असाहुरुखे ॥
[४६] शीलविहीन वह द्रव्यसाधु अपने घोर अज्ञानतमस् के कारण दुःखी हो कर विपरीत दृष्टि को प्राप्त होता है। फलत: असाधुरूप वह साधु मुनिधर्म की विराधना करके नरक और तिर्यञ्चयोनि में सतत आवागमन करता रहता है।
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४७. उद्देसियं कीयगडं नियागं न मुंबई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥
[४७] जो औद्देशिक, क्रीतकृत, नियाग (नित्यपिण्ड) आदि के रूप में थोड़ा-सा भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता; वह भिक्षु अग्नि के समान सर्वभक्षी होकर पाप कर्म करके यहाँ से मर कर दुर्गति में जाता है।
४८. न तं अरी कंठछेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥
[४८] उस (पापात्मा साधु) की अपनी दुष्प्रवृत्तिशील दुरात्मा जो अनर्थ करती है, वह (वैसा अनर्थ) गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता । उक्त तथ्य को वह निर्दय ( - संयमहीन) मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुँचने के समय पश्चात्ताप के साथ जान पाएगा।
४९.
निरट्टिया नग्गरुई उ तस्स जे उत्तम विवज्जासमेइ | इमे वि से नत्थि परे वि लोए दुहओ वि से झिज्जइ तत्थ लोए ॥