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उत्तराध्ययनसूत्र
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मूल कारणभूत दुःख को दूर करने के लिए अनगारधर्म अंगीकार करने का दृढ़ संकल्प, (३) वेदना के मूल कारणभूत जन्ममरणादि दुःख (वेदना रूप) का नाश, (४) सनाथ बनने के लिए प्रव्रज्या - स्वीकार और (५) इसके पश्चात् — स्व- पर का 'नाथ' बनना । १
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दुक्खमा: अर्थ - 'दुःक्षमा' का अर्थ है – दुःसहा । यह वेदना का विशेषण है। २
पव्वइए अणगारियं - (१) प्रवजन करूंगा अर्थात् — घर से प्रव्रज्या के लिए निष्क्रमण करूंगा, फिर अनगारता अर्थात्–भावभिक्षुता को अंगीकार करूंगा, अथवा (२) अनगारिता का प्रव्रजन स्वीकार करूंगा, जिससे कि संसार का उच्छेदन होने से मूल से ही वेदना उत्पन्न नहीं होगी।
कल्ले भायम्मि : दो अर्थ – (१) कल्य अर्थात् नीरोग होकर प्रभात - प्रातः काल में । अथवा (२) कल्ये – आगामी कल, चिन्तनादि की अपेक्षा से दूसरे दिन प्रातः काल में ।
स्व-पर एवं त्रस-स्थावरों का नाथ : कैसे ? – (१) इंन्द्रिय और मन को वश में कर लेने के कारण 'स्व' का नाथ हो जाता है। आत्मा इनकी तथा सांसारिक पदार्थों की गुलामी छोड़ देता है, तब अपना नाथ बन जाता है । (२) दूसरे व्यक्तियों का नाथ साधु बन जाने पर होता है, क्योंकि वास्तविक सुख जिन्हें अप्राप्त है, उन्हें प्राप्त कराता है तथा जिन्हें प्राप्त है, उन्हें रक्षणोपाय बताता है। इस कारण मुनि 'नाथ' बनता है। इसी प्रकार (३) त्रस-स्थावर जीवों का नाथ यानी शरणदाता, त्राता, धर्ममूर्ति संयमी साधु है ही ।
अपना 'नाथ' या 'अनाथ' कैसे ? – निश्चयदृष्टि दुष्प्रवृत आत्मा ही 'अनाथ' है। 'धम्मपद' में इस सम्बन्ध में एक गाथा है.
सत्प्रवृत्त आत्मा ही अपना नाथ है और
अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया । अत्तना ही सुदन्तेन 'नाथं' लभति दुल्लभं ॥ ॥४॥
अर्थात् — आत्मा ही आत्मा का नाथ है या हो सकता है। इसका दूसरा कौन नाथ (स्वामी) हो सकता है? भलीभांति दमन किया गया आत्मा स्वयं ही दुर्लभ 'नाथ' (स्वामित्व) पद प्राप्त कर लेता है।
आत्मा ही मित्र और शत्रु आदि -आत्मा उपकारी होने से मित्र है और अपकारी होने से शत्रु । दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा शत्रु है और सत्प्रवृत्ति में स्थित मित्र है। दुष्प्रस्थित आत्मा ही समस्त दुःखहेतु होने से वैतरणी आदि रूप है और सुप्रस्थित आत्मा सकल सुखहेतु होने से कामधेनु, नन्दनवन आदि रूप है। निष्कर्ष — प्रस्तुत दो गाथाओं ( ३६-३७) में यह आशय गर्भित है कि प्रव्रज्यावस्था में सुप्रस्थित होने से योगक्षेम करने में समर्थ होने से साधु स्व-पर का नाथ
जाता है।७
१. उत्तरा मूलपाठ, अ. २०, गा. ३१ से ३५ तक का सारांश ।
२. बृहद्वृत्ति, पत्र १७६
३. प्रव्रजेयं—गृहान्निष्क्रामयेयम् ततश्च अनगारतां — भावभिक्षुतामंगीकुर्यामिति । यद्वा — प्रव्रजेयं — प्रतिपद्येयमनगारितां, येन संसारोच्छित्तितो मूलत एव न वेदनासम्भवः ।
वही, पत्र ४७६
४.
" कल्यो— नीरोगः सन् प्रभाते- प्रातः, यद्वा कल्ल इति चिन्तनादिनाऽपेक्षया द्वितीयदिने प्रकर्षेण व्रजितो गतः । "
वही, पत्र ४७६
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६७ का तात्पर्य
५.
७. वही, पृष्ठ ४७७
धम्पपद, १२ वाँ अत्तवग्गो, गा. ४