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वीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय
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[३१] तब मैंने (मन ही मन ) इस प्रकार कहा (-सोचा -) कि "प्राणी को इस अनन्त संसार में अवश्य ही बार-बार दुःसह वेदना का अनुभव करना होता है।'
३२. सइं च जइ मुच्चेज्जा वेयणा विउला इओ।
खन्तो दन्तो निरारम्भो पव्वए अणगारियं॥ [३२] यदि इस विपुल वेदना से एक बार मुक्त हो जाऊँ तो मैं क्षान्त, दान्त और निरारम्भ अनगारता (भावभिक्षुता) में प्रव्रजित हो जाऊँगा।
३३. एवं च चिन्तइत्ताणं पसुत्तो मि नराहिवा!
परियडन्तीए राईए वेयणा मे खयं गया॥ [३३] हे नरेश! इस प्रकार (मन में) विचार करके मैं सो गया। परिवर्त्तमान (व्यतीत होती हुई) रात्रि के साथ-साथ मेरी (नेत्र-) वेदना भी नष्ट हो गई।
३४. तओ कल्ले पभायम्मि आपुच्छित्ताण बन्धवे।
खन्तो दन्तो निरारम्भो पव्वइओऽणगारियं॥ [३४] तदन्तर प्रभातकाल में नीरोग होते ही मैं बन्धुजनों से अनुमति लेकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगारधर्म में प्रव्रजित हो गया।
३५. ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य।
सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य॥ [३५] तब (प्रव्रज्या अंगीकार करने के बाद) मैं अपना और दूसरों का, त्रस और स्थावर सभी प्राणियों का 'नाथ' हो गया।
३६. अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली।
__ अप्पा कामहुआ धेणू अप्पा मे नन्दणं वणं॥ [३६] अपनी आत्मा स्वयं ही वैतरणी नदी है, अपनी आत्मा ही कूटशाल्मलि वृक्ष है, आत्मा ही ' कामदुग्धा धेनु है और अपनी आत्मा ही नन्दनवन है।
३७. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय—सुपट्ठिओ ॥ [३७] आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता (विनाशक ) है। सुप्रस्थित (-सत् प्रवृत्ति में स्थित) आत्मा ही अपना मित्र है और दुःप्रस्थित (-दुष्प्रवृत्ति में स्थित) आत्मा ही अपना शत्रु
विवेचन–अनाथता दूर करने का उपाय—प्रस्तुत पांच गाथाओं (३१ से ३५ तक) में मुनि ने प्रकारान्तर से अनाथता दूर करने का नुस्खा बता दिया है। वह क्रम संक्षेप में इस प्रकार है-(१) अनाथता के मूल कारण का चिन्तन-संसार में प्राणी को बार-बार जन्म-मरणदि का दुःसह दुःखानुभव, (२) अनाथता