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उत्तराध्ययनसूत्र (६) अनुरक्ता एवं पतिव्रता पत्नी भी दु:खमुक्त न कर सकी। अपनी अनाथता के ये कतिपय कारण मुनिवर ने प्रस्तुत किये हैं। १ ___पुराणपुरभेयणी-अपने गुणों से असाधारण होने के कारण पुरातन नगरों से भिन्नता स्थापित करने वाली अर्थात्-प्रमुख नगरी या श्रेष्ठ नगरी (कौशाम्बी नगरी) थी।
घोरा परमदारुणा–घोरा-भयंकर, जो दूसरों को भी प्रत्यक्ष दिखाई दे, ऐसी भयोत्पादिनी। परमदारुणा —अतीव दुःखोत्पादिका। उवट्ठिया -(वेदना का प्रतीकार करने के लिए) उद्यत हुए।
आयरिया : आचार्या - प्राणाचार्य, वैद्य।
सत्थकुसला—(१) शस्त्रकुशल (शल्यचिकित्सा या शस्त्रक्रिया में निपुण चिकित्सक) और (२) शास्त्रकुशल (आयुर्वेदविशारद)।
मंतमूलविसारया–मन्त्रों और मूलों-औषधियों-जड़ीबूटियों के विशेषज्ञ ।
चाउप्पायं-चतुष्पदां-चतुर्भागात्मक चिकित्सा—(१) भिषक्, भेषज, रुग्ण और परिचारक रूप चार चरणों वाली, (२) वमन, विरेचन, मर्दन एवं स्वेदन रूप चतुर्भागात्मक, अथवा (३) अंजन, बन्धन, लेपन और मर्दन रूप चिकित्सा। स्थानांगसूत्र में वैद्यादि चारों चिकित्सा के अंग कहे गए हैं। अपने-अपने शास्त्रों तथा गुरुपरम्परा के अनुसार विविध चिकित्सकों ने चिकित्सा की, किन्तु पीड़ा न मिटा सके।
अणुव्वया-अनुव्रता : कुलानुरूप व्रत-आचार वाली, अर्थात्-पतिव्रता अथवा 'अनुवयाः' रूपान्तर होने से अर्थ होगा—वय के अनुरूप (वह सभी कार्य स्फूर्ति से करती) थी।६।। ____ पासाओवि न फिट्टइ–मेरे पास से कभी दूर नहीं होती थी, हटती न थी। अर्थात्-उसका मेरे प्रति इतना अधिक अनुराग या वात्सल्य था। अनाथता से सनाथता-प्राप्ति की कथा
३१. तओ हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुणो पुणो।
वेयणा अणुभविउं जे संसारम्मि अणन्तए॥ १. उत्तराध्ययन, अ. २० मूलपाठ तथा बृहद्वृत्ति का सारांश २. "पुराणपुराणि भिनत्ति -स्वगुणैरसाधारणत्वाद् भेदेन व्यवस्थापयति -पुराणपुरभेदिनी।" -बृहद्वृत्ति, पत्र ४७५ ३. घोरा- परेषामपि दृश्यमाना, भयोत्पादनी; परमदारुणा-अतीवदुःखोत्पादिका। ४. (क) उपस्थिताः-वेदनाप्रतीकारं प्रत्युद्यताः। -वही, पत्र ४७५
(ख) आचार्या:-प्राणाचार्याः , वैद्या इति यावत्। -वही, पत्र ४७५ (क) "शस्त्रेषु शास्त्रेषु वा कुशलाः शस्त्रकुशलाः शास्त्रकुशलाः वा।" (ख) "चतुष्पदां —भिषग्भैषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भागां।"-बृहवृत्ति, पत्र ४७५
(ग) "चउव्विहा तिगिच्छा पण्णत्ता,तं०—विजो, ओसधाई, आउरे, परिचारते।"-स्थानांग. स्था. ४/३४३ - (घ) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३ पृ.५९१ ६. "कुलानुरूपं व्रतं-आचारोऽस्या अनुव्रता, पतिव्रतेति यावत्, वयोऽनुरूपा वा।'- बृहद्वृत्ति, पत्र ४७६ ७. "मत्पार्थाच्च नापयाति. सदा सन्निहितैवास्ते, अनेन तस्या अतिवत्सलत्वमाह।" - बृहद्वत्ति, पत्र ४७६