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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय ३११ अणिस्सिओ- इहलोक या परलोक में सुख, भोगसामग्री या किसी भी लौकिक लाभ की आकांक्षा से तप, जप, ध्यान, व्रत, नियम आदि करना इहलोकनिश्रित या परलोकनिश्रित कहलाता है। दशवैकालिक में कहा गया है-इहलोक के लिए तप न करे। परलोक के लिए तप न करे और कीर्ति, वर्ण, या श्लोक (प्रशंसा या प्रशस्ति) के लिए भी तपश्चरण न करे, किन्तु एकमात्र निर्जरा के लिए तपश्चरण करे । इसी प्रकार अन्य आचार के विषय में अनिश्चितता समझ लेनी चाहिए। महर्षि मृगापुत्र इहलोक और परलोक में अनिश्चितबेलगाव हो गये थे। ___अपसत्थेहिं दारेहिं—समस्त अप्रशस्त द्वारों यानी अशुभ आश्रवों (कर्मागमन-हेतुओं) से वे सर्वथा निवृत्त थे। २ पसत्थदमसासणे—वे प्रशंसनीय दम अर्थात्-उपशमरूप सर्वज्ञशासन में लीन हो गए। ३ असणे अणसणे तहा—'अशन' शब्द यहाँ कुत्सित अशन के अर्थ में अथवा अशनाभाव के अर्थ में है। अत: इस पंक्ति का अर्थ हुआ-आहार मिलने तथा तुच्छ आहार मिलने या न मिलने पर भी जो समभाव में स्थित है। महर्षि मृगापुत्र : अनुत्तरसिद्धिप्राप्त ९५. एवं नाणेण चरणेण दंसणेण तवेण य। भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं॥ [९५] इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप तथा शुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को सम्यक्तया भावित करके - ९६. बहुयाणि उ वासाणि सामण्णमणुपालिया। ___ मासिएण उ भत्तेण सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं॥ [९६] बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन कर (अन्त में) एक मासिक भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) से उन्होंने (मृगापुत्र महर्षि ने) अनुत्तर सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की। विवेचन भावणाहिं सुद्धाहिं—शुद्ध अर्थात् निदान आदि दोषों से रहित, भावनाओं-अर्थात् महाव्रत सम्बन्धी भावनाओं अथवा अनित्यत्वादि-विषयक द्वादश भावनाओं से आत्मा को सम्यक्तया भावित करके यानी इन भावनाओं में तन्मय होकर । मासिएण भत्तेण–मासिक (एक मास का) उपवास (अनशन) करके। अणुत्तरं सिद्धिं-समस्त सिद्धियों में प्रधान सिद्धि अर्थात् मुक्ति प्राप्त की। ५ इहलोके परलोके वा अनिश्चितो, नेहलोकार्थ परलोकार्थवाऽनुष्ठानवान्। -वही, पत्र ४६५ २. 'अप्रशस्तेभयः-प्रशंसाऽनास्पदेभ्यः द्वारेभ्य:-कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः यः आश्रवः-कर्मसंलग्नात्मकः स पिहित: निरुद्धो येन।—वही, पत्र ४६५ ३. प्रशस्त :-प्रशंसास्पदो दमश्च उपशम : शासनं च -सर्वज्ञागमात्मकं यस्य स प्रशस्तदमशासनः। वही, पत्र ४६५ ४. बृहद्वृत्ति, ४६५ ५. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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