SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ उत्तराध्ययनसूत्र महर्षि मृगापुत्र के चारित्र से प्रेरणा ९७. एवं करन्ति संबुद्धा पण्डिया पवियक्खणा। विणियट्टन्ति भोगेसु मियापुत्ते जहा रिसी॥ [९७] सम्बुद्ध, पण्डित और अतिविचक्षण व्यक्ति ऐसा ही करते हैं। वे कामभोगों से वैसे ही निवृत्त हो जाते हैं, जैसे कि महर्षि मृगापुत्र निवृत्त हुए थे। ९८. महापभावस्स महाजसस्स मियाइ पुत्तस्स निसम्म भासियं। तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं गइप्पहाणं च तिलोगविस्सुयं॥ [९८] महाप्रभावशाली, महायशस्वी, मृगापुत्र के तप:प्रधान, (मोक्षरूप) गति से प्रधान, त्रिलोकविश्रुत (प्रसिद्ध) उत्तम चारित्र के कथन को सुनकर - ९९. वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं ममत्तबंधं च महब्भयावहं। सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं धारेह निव्वाणगुणावहं महं॥-त्ति बेमि। [९९] धन को दुःखवर्द्धक और ममत्व बन्धन को अत्यन्त भयावह जानकर (अनन्त-) सुखावह एवं निर्वाण गुणों को प्राप्त कराने वाली अनुत्तर धर्मधुरा को धारण करो। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-संबुद्धा-(१) जिनकी प्रज्ञा सम्यक् है, वे ज्ञानादि सम्पन्न । निव्वाणगुणावहं—निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कराने वाले -अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखादि गुणों को धारण करने वाले। मियापुत्तस्स भासियं-मृगापुत्र का संसार को दुःख रूप बताने वाला वैराग्यमूलक कथन, जो उसने माता-पिता के समक्ष कहा था। १ । ॥ मृगापुत्रीय : उन्नीसवाँ अध्ययन समाप्त॥ 100 १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy