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________________ ३१० उत्तराध्ययन सूत्र ९०. निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य॥ [९०] (वह) ममता से निवृत्त, निरहंकार, नि:संग (अनासक्त), गौरवत्यागी तथा त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समदृष्टि (हो गया।) ९१. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निन्दा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥ [९१] (वह) लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवित और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समत्व का (आराधक हो गया।) __ ९२. गारवेसु कसाएसु दण्ड-सल्ल-भएसु य। ___ नियत्तो हास - सोगाओ अनियांणो अबन्धणो॥ [९२] (वह) गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त एवं निदान और बन्धन से रहित (हो गया।) ९३. अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ। वासीचन्दणकप्पो य असणे अणसणे तहा॥ [९३] वह इहलोक में और परलोक में अनिश्रित-निरपेक्ष हो गया तथा वासी-चन्दनकल्प-वसूले से काटे जाने अथवा चन्दन लगाए जाने पर भी अर्थात् सुख-दुःख में समभावशील एवं आहार मिलने या न मिलने पर भी समभाव (से रहने लगा।) ९४. अप्पसत्थेहिं दारेहिं सव्वओ पिहियासवे। __ अज्झप्पज्झाणजोगेहिं पसत्थ-दमसासणे॥ [९४] अप्रशस्त द्वारों (- कर्मोपार्जन हेतु रूप हिंसादि) से (होने वाले) आश्रवों का सर्वतोभावेन निरोधक (महर्षि मृगापुत्र ) अध्यात्म सम्बन्धी ध्यानयोगों से प्रशस्त संयममय शासन में लीन। विवेचन—मृगापुत्र युवराज से निर्ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत गाथाओं में मृगापुत्र के त्यागीनिर्ग्रन्थरूप का वर्णन किया गया है। महानागो व्व कंचुयं—जैसे महानाग अपनी केंचुली छोड़कर आगे बढ़ जाता है, फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखता, वैसे ही मृगापुत्र भी सांसारिक माता-पिता, धन, धाम आदि का ममत्व बन्धन तोड़ कर प्रव्रजित हो गया। अनियाणो—इहलोक-परलोक सम्बन्धी विषय-सुखों का संकल्प निदान कहलाता है। महर्षि मृगापुत्र ने निदान का सर्वथा त्याग कर दिया। अबंधणो-रागद्वेषात्मक बन्धन से रहित। २ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : अबन्धनः-रागद्वेषबन्धनरहित ।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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