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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मुगापुत्रीय ३०९ मृगचर्या का स्पष्टीकरण- गाथा ८३ में मृग की चर्या के साथ मुनि की मृगचर्या की तुलना की गई है। मुनि मृगतुल्य अकेला (असहाय और एकाकी) होता है, उसके साथ दूसरा कोई सहायक नहीं होता। वह मृग के समान अनेकचारी होता है। अर्थात् वह एक ही जगह आहार पानी के लिए विचरण नहीं करता, बदल-बदल कर भिन्न-भिन्न स्थानों में जाता है। इसी तरह वह मृगवत् अनेक-वास होता है। अर्थात् वह एक ही स्थान में निवास नहीं करता तथा ध्रुवगोचर होता है । अर्थात् जैसे मृग स्वयं इधरउधर भ्रमण करके अपना आहार ढूंढ कर चर लेता है, किसी और से नहीं मांगता, इसी प्रकार साधु भी अपने सेवक या भक्त से आहार-पानी नहीं मंगाता। वह ध्रुवगोचर (अर्थात् -गोचरी में प्राप्त आहार का ही सेवन करता है तथा मृग, जैसा भी मिल जाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, वह न तो किसी से शिकायत करता है, न किसी की निन्दा और भर्त्सना करता है, उसी प्रकार मुनि भी कदाचित मनोज्ञ या पर्याप्त आहार न मिले अथवा सूखा, रूखा, नीरस आहार मिले तो भी न किसी की अवज्ञा करता है और न किसी की निन्दा या भर्त्सना करता है। इसी प्रकार मृगचर्या में अप्रतिबद्धविहार, पादविहार ,गोचरी, चिकित्सानिवृत्ति आदि सभी गुण आ जाते हैं। ऐसी मृगचर्या पालन का सर्वोत्कृष्टफल-सर्वोपरि स्थान में (मोक्ष में) गमन बताया गया है। जहाइ उवहिं-मृगापुत्र उपधि का परित्याग करता है, अर्थात् -द्रव्यत: गृहस्थोचित वेष, आभरण, वस्त्रादि उपकरणों का, भावतः कषाय, विषय, छल-छद्म आदि (जो आत्मा को नरक में स्थापित करते हैं , ऐसी) भावोपधि का त्याग करता है—प्रव्रजित होता है। २ मृगापुत्र : श्रमण निर्ग्रन्थ रूप में ८७. एवं सो अम्मापियरो अणुमाणित्ताण बहुविहं। ममत्तं छिन्दई ताहे महानागो व्व कंचुयं॥ [८७] इस प्रकार वह (मृगापुत्र) अनेक प्रकार से माता-पिता को अनुमति के लिए मना कर उनके (या उनके प्रति) ममत्व को त्याग देता है, जैसे कि महानाग (महासर्प) केंचुली का परित्याग कर देता है। ८८. इडिंढ वित्तं च मित्ते य पुत्त-दारं च नायओ। रेणुयं व पडे लग्गं निद्धणित्ताण निग्गओ॥ [८८] वस्त्र पर लगी हुई धूल की तरह ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, स्त्री और ज्ञातिजनों को झटक कर वह संयमयात्रा के लिए निकल पड़ा। ८९. पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य। सब्भिन्तर–बाहिरओ तवोकम्मंसि उज्जुओ॥ [८९] (वह अब) पंच महाव्रतों से युक्त, पंच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, आभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यत (हो गया।) १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ २. वही, पत्र ४६३: "त्यजति उपधिं -उपकरणमाभरणादि द्रव्यतः भावतस्तु छद्मादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रव्रजतीत्युक्तं भवति।"
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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