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उत्तराध्ययन सूत्र करता है? वह प्रकृति पर निर्भर होकर जीता है , विचरण करता है और जब स्वस्थ होता है तब स्वयं अपनी चर्या करता हुआ अपनी आवासभूमि में चला जाता है। इसलिए मैं भी वैसी ही मृगचर्या करूंगा। उनके लिए अपनी चर्या दुःखरूप नहीं है, तो मेरे लिए क्यों होगी।
प्रस्तुत गाथाओं में चिकित्सा-निरपेक्षता के संदर्भ में मृग और पक्षियों का तथा आगे की गाथाओं में केवल मृग का बारबार उल्लेख किया गया है अन्य पशुओं का क्यों नहीं? इसका समाधान बृहद्वृत्तिकार ने किया है कि मृग प्रायः प्रशमप्रधान होते हैं, इसलिए एकचारी साधक के लिए मृगचर्या युक्तिसंगत जंचती है।
एगभूओ अरण्णे वा–घोर जंगल में मृग का कोई सहायक नहीं होता जो उसकी सहायता कर सके, वह अकेला ही होता है, मृगापुत्र भी उसी तरह एकाकी और असहाय होकर संयम और तप सहित निर्ग्रन्थधर्म का आचरण करने का संकल्प प्रकट करता है। इस गाथा से यह स्पष्ट है कि मृगापुत्र स्वयंबुद्ध (जातिस्मरणज्ञान के निमित्त से) होने के कारण एकलविहारी बने थे। गाथा ७७ और ८३ से यह स्पष्ट है।३
गच्छइ गोयरं -इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि जब मृग स्वतः रोग-रहित – स्वस्थ हो जाता है, तब वह अपने तृणादि के भोजन की तलाश में गोचरभूमि में चला जाता है। गोचर का अर्थ बृहवृत्ति में यह किया गया है -गाय जैसे परिचित-अपरिचित भूभाग की कल्पना से रहित होकर अपने आहार के लिए विचरण करती है, वैसे ही मृग भी परिचित-अपरिचित गोचरभूमि में जाता है।
वल्लराणि-वल्लर शब्द के अनेक अर्थ यहाँ बृहवृत्तिंकार ने दिये हैं—गहन लतानिंकुज, अपानीय देश, अरण्य और क्षेत्र। प्रस्तुत प्रसंग में वल्लरों के विभिन्न लताकुंज अर्थ सम्भव है। अर्थात् वह मृग कभी किसी वल्लर में और कभी किसी में अपने आहार की तलाश के लिए जाता है। ५ ।।
मियचारियं चरित्ताणं-(१) मृगचर्या-इधर-उधर उछलकूद के रूप में जो मृगों की चर्या है, उसे करता हुआ।(२) मितचारितां-परिमित भक्षणरूपा चर्या करके । मृग स्वभावतः परिमिताहारी होते हैं, इसलिए यह अर्थ भी संगत होता है। (३) मृगचारिका-जहाँ मृगों की स्वतंत्र रूप से बैठने की चर्या - चेष्टा होती है, उस आश्रयस्थान को भी मगचारिका या मृगचर्या कहते हैं। ६
अणेगओ—अनेकगः- मृग जैसे एक ही नियत वृक्ष के नीचे नहीं बैठता, वह कभी किसी और कभी किसी वृक्ष का आश्रय लेता है, वैसे ही साधक भी एक ही स्थान में नहीं रहता, कभी कहीं और कभी कहीं रहता है। इसी प्रकार भिक्षा भी एक नियत घर से प्रतिदिन नहीं लेता। ७
१. उत्तरा. बृहद्वत्ति, पत्र ४६२ २. 'इह च मृगपक्षिणामुभयेषामुपक्षेपे, यन्मृगस्यैव पुनः पुनदृष्टान्तत्वेन समर्थनं, तत्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदायः।'
–बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ ३. वही, पत्र ४६२-४६३ : "एकभूतः-एकत्वं प्राप्तोऽरण्ये।" "एक:-अद्वितीयः।' ४. 'गौरिव परिचितेतरभूभागपरिभावनारहितत्वेन चरणं भ्रमणमस्मिन्निति गोचरस्तम्।'-बृहद्वृत्ति, पत्र ४६२ ५. वल्लराणि-गहनानि । उक्तञ्च- 'गहणमवाणियं रणे छत्तं च वल्लरं जाण।' -बृहद्वृत्ति, पत्र ४६२
(क) मृगाणां चर्या -इतश्चेतश्चोत्प्लवनात्मकं चरणं मृगचर्या तां, मितचारितां वा परिमितभक्षणात्मिकां।
(ख) मृगाणां चर्या-चेष्टा स्वातन्त्र्योपवेशनादिका यस्यां सा मृगचर्या-मृगाश्रयभूः। -बृहद्वत्ति, पत्र ४६२-४६३ ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३