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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय ३०७ [८१] जब वह सुखी (स्वस्थ ) हो जाता है, तब स्वयं गोचर भूमि में जाता है तथा खाने-पीने के लिये वल्लरों (लता - निकुंजों) एवं जलाशयों को खोजता है । ८२. खाइत्ता पाणियं पाउं वल्लरेहिं सरेहि वा । मिगचारियं चरित्ताणं गच्छई मिगचारियं ॥ [८२] लता- निकुंजों और जलाशयों में खा (चर) कर, और पानी पी कर, मृगचर्या करता (उछलता -कूदता) हुआ वह मृग अपनी मृगचारिका (मृगों की आवासभूमि) को चला जाता है। ८३. एवं समुट्ठिओ भिक्खू एवमेय अणेगओ । मिगचारियं चरित्ताणं उड्ढं पक्कमई दिसं ॥ [८३] इसी प्रकार संयम के अनुष्ठान में समुद्यत ( तत्पर) इसी (मृग की तरह रोगोत्पत्ति होने पर चिकित्सा नहीं करने वाला तथा स्वतंत्र रूप से अनेक स्थानों में रह कर भिक्षु मृगचर्या का आचरण (पालन) करके ऊर्ध्व दिशा (मोक्ष) को प्रयाण करता है । ८४. जहाँ मिगे एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोयरे य । एवं मुणी गोयरियं पविट्ठे नो हीलए नो वियं खिंसएज्जा ॥ [८४] जैसे मृग अकेला स्थानों में चरता ( भोजन - पानी आदि लेता) है अथवा विचरता है, अनेक स्थानों में रहता है, गोचरचर्या से ही स्थायीरूप से जीवन निर्वाह करता है, (ठीक) वैसे ही (मृगचर्या में अभ्यस्त ) मुनि गोचरी के लिए प्रविष्ट होने पर किसी की हीलना ( निन्दा) नहीं करता और न ही किसी की अवज्ञा करता है । संयम की अनुमति और मृगचर्या का संकल्प ८५. मिगचारियं चरिस्सामि एवं पुत्ता! जहासुहं । अम्माfपऊहिं अणुन्नाओ जहाइ उवहिं तओ ॥ [८५] (मृगापुत्र) — हे माता - पिता ! मैं भी मृगचर्या का आचरण (पालन) करूंगा। (माता-पिता) — ' हे पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो।' इस प्रकार माता-पिता की अनुमति पा कर फिर वह उपधि (गृहस्थाश्रम - सम्बन्धी समस्त परिग्रह) का परित्याग करता है । ८६. मियचारियं चरिस्सामि सव्वदुक्खविमोक्खणिं । तुब्भेहि अम्म ! ऽणुन्नाओ गच्छ पुत्त ! जहासुहं ॥ [८६] (मृगापुत्र माता से) – " माताजी ! मैं आपकी अनुमति पाकर समस्त दुःखों का क्षय करने वाली मृगचर्या का आचरण (पालन) करूंगा।' (माता) — " पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। " विवेचन - मृगचर्या का संकल्प — मृगापुत्र के माता-पिता ने उसे जब श्रमणधर्म में रोग चिकित्सा के निषेध को दु:खकारक बताया तो मृगापुत्र ने वन में एकाकी विचरणशील मृग का उदाहरण देते हुए कहा कि मृग जब रुग्ण हो जाता है तो कौन उसे औषध देता है? कौन उसे घास चारा देता है? कौन उसकी सेवा
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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