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उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय
३०५ बाज आदि पक्षियों की सहायता से पक्षियों को पकड़ लिया करते हैं, अथवा जाल फैला कर उन्हें बांध लिया करते हैं तथा चिपकाने वाले लेप द्वारा उन्हें जोड़ दिया करते हैं और फिर मार देते हैं, इसी प्रकार नरक में परमाधार्मिक देव भी अपनी वैक्रियशक्ति से बाज आदि का रूप बना कर नारकों को पकड़ लेते हैं, जाल में बाँध देते हैं, लेप्य द्रव्य से उन्हें चिपका देते हैं, फिर उन्हें मार देते हैं। ऐसी ही दशा मेरी (मृगापुत्र की) थी।
सोल्लगाणि-(१) बृहवृत्ति के अनुसार-भाड़ में पकाये हुए अथवा (२) अन्य विचारकों के मतानुसार-शूल में पिरो कर आग में पकाये गये।२ ।।
सुरा, सीधु, मैरेय और मधु सामान्यतया ये चारों शब्द 'मद्य' के अर्थ में हैं, किन्तु इन चारों का विशेष अर्थ इस प्रकार किया गया है—सुरा–चन्द्रहास नाम की मदिरा, सीधु,-ताड़ वृक्ष की ताड़ी. मैरेय-जौ आदि के आटे से बनी हुई मदिरा तथा मधु-पुष्पों से तैयार किया हुआ मद्य।
तिव्वचंडपगाढओ०-यद्यपि तीव्र, चण्ड, प्रगाढ आदि शब्द प्राय: एकार्थक हैं, अत्यन्त भयोत्पादक होने से ये सब वेदना के विशेषण हैं। इनका पृथक्-पृथक् विशेषार्थ इस प्रकार है-तीव्र नारकीय वेदना रसानुभव की दृष्टि से अतीत तीव्र होने से तीव्र, चण्ड-उत्कट, प्रगाढ–दीर्घकालीन (गुरुतर) स्थिति वाली, घोर–रौद्र, अति दुःसह-अत्यन्त असह्य, महाभया—जिससे महान् भय हो, भीमा-सुनने में भी भयप्रद ।
निमेसंतरमित्तं पि-निमेष का अर्थ-आँख का पलक झपकाना, उसमें जितना समय लगता है, उतने समय भर भी।
निष्कर्ष-मृगापुत्र के इस समग्र कथन का आशय यह है कि जब मैंने पलक झपकने जितने समय में भी सुख नहीं पाया, तब वास्तव में कैसे कहा जा सकता है कि मैं सुखशील हूँ या सुकुमार हूँ। इसी तरह जिसने (मैंने) नरकों में अत्युष्ण-अतिशीत आदि महावेदनाएँ अनेक बार सहन की हैं, परमाधार्मिकों द्वारा दी गई विविध यातनाएँ भी सही हैं, उसके लिए महाव्रत-पालन का कष्ट अथवा श्रमणधर्म के पालन का दुःख या परीषह-उपसर्ग सहन किस बिसात में है? वास्तव में महाव्रतपालन, श्रमणधर्माचरण अथवा परीषहसहन उसके लिए परमानन्द का हेतु है। इन सब दृष्टियों से मुझे अब निर्ग्रन्थमुनिदीक्षा ही अंगीकार करनी है।६ माता-पिता द्वारा अनुमति, किन्तु चिकित्सा-समस्या प्रस्तुत
७६. तं बिंतऽम्मापियरो छन्देणं पुत्त! पव्वया।
नवरं पुण सामण्णे दुक्खं निप्पडिकम्मया॥ १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ४६० (ख) उत्तरा० प्रियदर्शिनीटीका, भा० ३, पृ० ५३७ २. (क) 'सोल्लगाणि' त्ति भडित्रीकृतानि।' -बृहद्वत्ति, पत्र ४६१ __ (ख) शूलाकृतानि शूले समाविध्य पक्वानि । -उत्तरा० प्रियदर्शिनी, भा० ३, पृ० ५४० ३. उत्तरा • प्रियदर्शिनीटीका, भा० ३, पृ० ५४१
सुरा–चन्द्रहासाभिधानं मद्यं, सीधु:-तालवृक्षनिर्यातः (ताड़ी), मैरेयः-पिष्ठोद्भवं मद्यं, मधूनि-पुष्पोद्भवानि
मद्यानि। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६१ ५. वही, पत्र ४६१ ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६१