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उन्नीसवाँ अध्ययन : मुगापुत्रीय
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७४. जारिसा माणुसे लोए ताया! दीसन्ति वेयणा।
____एत्तो अणन्तगुणिया नरएसु दुक्खवेयणा॥ [७४] हे पिता! मनुष्यलोक में जैसी (शीतोष्णादि) वेदनाएँ देखी जाती हैं, उनसे अनन्तगुणी अधिक दुःखमयी वेदनाएँ नरकों में होती हैं।
७५. सव्वभवेसु अस्साया वेयणा वेइया मए।
निमेसन्तरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा॥ [७५] मैंने सभी जन्मों में असाता-(दुःख) रूप वेदना का अनुभव किया है। वहाँ निमेष मात्र के अन्तर जितनी भी सुखरूप वेदना नहीं है।
विवेचन-मृगापुत्र के मुख से नरकों में अनुभूत उत्कृष्ट वेदनाओं का वर्णन-माता-पिता ने मगापत्र के समक्ष श्रमणधर्मपालन में होने वाली कठिनाइयों और कष्टकथाओं का वर्णन किया तो मगापत्र ने नरकों में अनभत उनसे भी अनन्तगणी वेदनाओं का वर्णन किया, जो यहाँ ४४ से ७४ वीं तक ३१ गाथाओं में अंकित है। यद्यपि नरकों में पक्षी, शस्त्रास्त्र, सूअर, कुत्ते, छुरे, कुल्हाड़ी, फरसा, लुहार, सुथार, बाजपक्षी आदि नहीं होते, किन्तु वहाँ नारकों को दु:ख देने वाले नरकपाल परमाधर्मी असुरों के द्वारा ये सब वैक्रियशक्ति से बना लिये जाते हैं और नारकीय जीवों को अपने-अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार (कभी-कभी पूर्वकृत पापकर्मों की याद दिला कर) विविध यंत्रणाएँ दी जाती हैं।
चाउरंते : चातुरन्त—यह संसार का विशेषण है। इसका विशेषार्थ है—संसार के नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव; ये चार अन्त—अवयव अंग (अंग) हैं, इसलिए वह (संसार) चातुरन्त कहलाता है।
इह लोगे निप्पिवासस्स—इहलोक शब्द से यहाँ इहलोकस्थ, इस लोक सम्बन्धी स्वजन, धन आदि का ग्रहण किया जाता है। किसी के मत से ऐहिक सुखों का ग्रहण किया जाता है। अत: इस पंक्ति का तात्पर्यार्थ हुआ—जो साधक इहलौकिक स्वजन, धन, आदि के प्रति या ऐहिक सुखों के प्रति नि:स्पृह या निराकांक्ष है, उसके लिए शुभानुष्ठान यदि अत्यन्त कष्टकर हों तो भी वे कुछ भी दुष्कर (दुरनुष्ठेय) नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि भोगादि की स्पृहा होने पर ही ये शुभानुष्ठान दुष्कर लगते हैं।
नरकों में अनन्तगुणी उष्णता– यद्यपि नरकलोक में बादर अग्नि नहीं है, तथापि मनुष्यलोक में अग्नि की जितनी उष्णता है, उससे भी अनन्तगुणी उष्णता के स्पर्श का अनुभव वहाँ होता है। यही बात नारकीय शीत (ठंड) के सम्बन्ध में समझनी चाहिए।
नरकों में पीड़ा पहुंचाने वाले कौन?—इस प्रश्न का समाधान यह है कि प्रथम तीन नरकपृथ्वियों में परमाधर्मी असुरों द्वारा नारकों को पीड़ा पहुँचाई जाती है। शेष अन्तिम चार नरकपृथ्वियों में नारकीय जीव स्वयं परस्पर में एक दूसरे को वेदना की उदीरणा करते हैं। १५ प्रकार के परमाधार्मिक देवों १. उत्तराध्ययन मूलपाठ, अ० १९, गा० ४४ से ७४ तक २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५९ : चत्वारो देवादिभवा अन्ता-अवयवा यस्याऽसौ चतुरन्त:-संसारः । ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५९ : "इहलोकशब्देन च 'तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश' इति कृत्वा ऐहलौकिकाः स्वजन-धन
सम्बन्धादयो गृह्यन्ते।" (ख) उत्तरा० अनुवाद-विवेचन-युक्त (मुनि नथमल), भा० १ पृ० २४६