________________
उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय
२९९ समझाकर अन्त में माता-पिता कहते हैं—इतने पर भी तेरी इच्छा दीक्षा ग्रहण करने की हो तो भुक्तभोगी होकर ग्रहण करना। मृगापुत्र द्वारा नरक के अनन्त दुःखों के अनुभव का निरूपण
४५. तं बिंत ऽम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं।
इह लोए निष्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं॥ [४५] (मृगापुत्र)-उसने (मृगापुत्र ने) माता-पिता से कहा—आपने जैसा कहा है, वह वैसा ही है, 'प्रव्रज्या दुष्कर है' यह स्पष्ट है; किन्तु इस लोक में जिसकी पिपासा बुझ चुकी है—अभिलाषा शान्त हो गई है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है।
४६. सारीर-माणसा चेव वेयणाओ अणन्तसो।
मए सोढाओ भीमाओ असई दुक्खभयाणि य॥ [४६] मैंने शारीरिक और मानसिक भयंकर वेदनाएं अनन्त बार सहन की हैं तथा अनेक बार दुःखों और भयों का भी अनुभव किया है।
४७. जरा-मरणकन्तारे चाउरन्ते भयागरे।
मए सोढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणि य॥ [४७] मैने नरकादिचार गतिरूप अन्त वाले, जरा-मरणरूपी भय के आकर (खान), (संसाररूपी) कान्तार (घोर अरण्य) में भयंकर जन्म और मरण सहे हैं।
४८. जहा इहं अगणी उण्हो एत्तोऽणन्तगुणे तहि।
नरएसु वेयणा उण्हा अस्साया वेइया मए॥ ___ [४८] जैसे यहाँ अग्नि उष्ण है, उससे अनन्तगुणी अधिक असाता (-दुःख)रूप उष्णवेदना मैंने नरकों में अनुभव की है।
४९. जहा इमं इहं सीयं एत्तोऽणंतगुणं तहिं।
नरएसु वेयणा सीया अस्साया वेइया मए॥ [४९] जैसे यहाँ यह ठंड (शीत) है, उससे अनन्तगुणी अधिक असाता (-दुःख) रूप शीतवेदना मैंने नरकों में अनुभव की है।
५०. कन्दन्तो कंदुकुम्भीसु उड्डपाओ अहोसिरो।
___ हुयासणे जलन्तम्मि पक्कपुव्वो अणन्तसो॥ [५०] मैं नरक की कन्दुकुम्भियों में (पकाने के लोहपात्रों में) ऊपर पैर और नीचे सिर करके प्रज्वलित (धधकती हुई) अग्नि में आक्रन्दन करता (चिल्लाता) हुआ अनन्त बार पकाया गया हूँ।
५१. महादवग्गिसंकासे मरुम्मि वइरवालुए।
कलम्बवालुयाए य दड्डपुव्वो अणन्तसो॥ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५७