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उत्तराध्ययन सूत्र
सुकुमारता, स्वच्छता आदि प्रकृति की याद दिलाकर श्रमणधर्मपालन में उसकी असमर्थता का संकेत किया गया है।
तदनन्तर विविध उपमाओं द्वारा श्रमणधर्म के आचरण को अतीव दष्कर सिद्ध करने का प्रयास किया गया है और अन्त में ४४ वीं गाथा में उसे सुझाव दिया गया है कि यदि इतनी दुष्करताओं और कठिनाइयों के बावजूद भी तेरी इच्छा श्रमणधर्म के पालन की हो तो पहले पंचेन्द्रिय-विषयभोगों को भोग कर फिर साधु बन जाना।
गुणाणं तु सहस्साइं०–साधु को श्रामण्य के लिए उपकारक शीलांगरूप सहस्र गुणों को धारण करना होता है। समया सव्वभूएसु-साधुको यावज्जीवन सामायिक का पालन करना होता है। २
दंतसोहणमाइस्स-(१) दांत कुरेदने की तिनके की पतली सलाई, अथवा (२) दांतों की सफाई करने की दतौन आदि। आशय यह है कि दांत कुरेदने को तिनके की सलाई जैसी तुच्छतर वस्तु को भी आज्ञा विना ग्रहण करना साधु के लिए वर्जित है, तो फिर अदत्त मूल्यवान पदार्थों को ग्रहण करना तो वर्जित है ही। कामभोगरसन्नुणा – (१) कामभोगों के रस को जानने वाला, (२) कामभोगों और शृंगारादि रसों के ज्ञाता।
परिग्रह, सर्वारम्भ एवं ममत्व का परित्याग-इन तीनों के परित्याग द्वारा साधुवर्ग में निराकांक्षता और निर्ममत्व का होना अनिवार्य बताया है। ५ ताडना. तर्जना. वध और बन्ध ताडन हाथ आदि से मारना-पीटना, तर्जना -तर्जनी अंगुली आदि दिखाकर या भ्रुकुटि चढ़ाकर डांटना-फटकारना, वधलाठी आदि से प्रहार करना, बन्ध-मूंज, रस्सी आदि से बांधना। ६
अहीवेगंतदिट्ठीए०'—जैसे सांप अपने चलने योग्य मार्ग पर ही अपनी दृष्टि जमाकर चलता है, दूसरी ओर दृष्टि नहीं दौड़ाता, वैसे ही साधक को अपने चारित्रमार्ग के प्रति एकान्त अर्थात्-एक ही (चारित्र ही) में निश्चल दृष्टि रखनी होती है। ७
निहुयं नीसंकं–निभृत—निश्चल अथवा विषयाभिलाषा आदि द्वारा अक्षोभ्य; नि:शंक-शरीरादि निरपेक्ष, अथवा सम्यक्त्व के अतिचार रूप शंका से रहित । अणुवसंतेणं-अनुपशान्त अर्थात्-जिसका कषाय शान्त नहीं हुआ है।
पंचलक्खणए—यह भोग का विशेषण है। पंचलक्षण का अर्थ है-शब्दादि इन्द्रियविषयरूप पांच लक्षणों वाला। भत्तभोगी तओ पच्छा०-यौवन में प्रव्रज्या अत्यन्त कठिन एवं द:खकर है. इत्यादि बातें
१. उत्तराध्ययन अ. १९, मूलपाठ, बृहद्वृत्ति, पत्र ४५५-४५६ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ ३. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३ पृ० ४९३ (ख) उत्तरा. विवेचन (मुनि नथमल), पृ. २४३ ४-५.बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ ६. ताडना-करादिभिराइननं, तर्जना-अंगुलिभ्रमण-भ्रूत्क्षेपादिरूपा, वधश्च लकुटादिप्रहारो, बन्धश्च-मयूर-बन्धादिः।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ ७. (क) वही, पत्र ४५७
(ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ० ५०८