________________
२९७
उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय लोहे के जौ (यव) चबाना जैसे दुष्कर है, वैसे ही चारित्र का पालन करना दुष्कर है।
४०. जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं।
तह दुक्करं करेउं जे तारुण्णे समणत्तणं॥ [४०] जैसे प्रदीप्त अग्नि-शिखा (ज्वाला) को पीना दुष्कर है, वैसे ही तरुणावस्था में श्रमणधर्म का आचरण करना दुष्कर है।
४१. जहा दुक्खं भरेउं जे होई वायस्स कोत्थलो।
तहा दुक्खं करेउं जे कीवेणं समणत्तणं॥ [४१] जैसे कपड़े के कोथले (थैले) को हवा से भरना दुःशक्य है, वैसे ही कायर व्यक्ति के द्वारा श्रमणधर्म का आचरण करना कठिन होता है।
४२. जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मन्दरो गिरी।
तहा निहुयं नीसंकं दुक्करं समणत्तणं॥ [४२] जैसे मन्दराचल को तराजू से तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चल और निःशंक होकर श्रमणधर्म का आचरण करना भी दुष्कर कार्य है।
४३. जहा भुयाहिं तरिउ दुक्करं रयणागरो।
तहा अणुवसन्तेणं दुक्करं दमसागरो॥ [४३] जैसे भुजाओं से समुद्र को तैरना अति दुष्कर है, वैसे ही अनुपशान्त व्यक्ति के लिए दम (अर्थात् चारित्र) रूपी सागर को तैरना दुष्कर है।
४४. भुंज माणुस्सए भोगे पंचलक्खणए तुम।
___ भुत्तभोगी तओ जाया! पच्छा धम्मं चरिस्ससि॥ [४४] हे अंगजात ! तू पहले मनुष्य सम्बन्धी शब्द, रूप आदि पांच प्रकार के भोगों का भोग कर; उसके पश्चात् भुक्तभोग होकर (श्रमण-) धर्म का आचरण करना।
_ विवेचन–श्रमणधर्म की कठिनता का प्रतिपादन–२४वीं से ४३वीं तक १९ गाथाओं में मृगापुत्र के समक्ष उसके माता-पिता ने श्रमणधर्म की दुष्करता एवं कठिनता का चित्र विविध पहलुओं से प्रस्तुत किया है। वह इस प्रकार है
___ हजारों गुणों को धारण करना, प्राणिमात्र पर समभाव रखना और प्राणातिपात आदि पांच महाव्रतों का पालन करना अत्यन्त दुष्कर है। रात्रि-भोजनत्याग, संग्रह-त्याग भी अतीव कठिनतर है; यह यहाँ प्रथम सात गाथाओं में प्रतिपादित है।
तत्पश्चात् बाईस परीषहों में से १३ परीषहों को सहन करने की कठिनता का दिग्दर्शन ३१-३२वीं दो गाथाओं में कराया गया है।
इसके बाद ३३ वी गाथा में श्रमणधर्म के अन्तर्गत कापोतीवृत्ति, केशलोच, घोर ब्रह्मचर्य-पालन को महासत्त्वशालियों के लिए भी अतिदुष्कर बताया गया है और ३४वीं गाथा में मृगापुत्र की सुखभोगयोग्य वय,