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'उन्नीसवाँ अध्ययन
मृगापुत्रीय
अध्ययन-सार
* इस अध्ययन का नाम 'मृगापुत्रीय' (मियापुत्तिज्जं ) है, जो मृगा रानी के पुत्र से सम्बन्धित है। * मृगापुत्र का सामान्य परिचय देकर उसे संसार से विरक्ति कैसे हुई, उसके अपने माता-पिता के साथ क्या-क्या प्रश्नोत्तर हुए, अन्त में मृगापुत्र श्रमणधर्मपालन के कष्टों और कठिनाइयों से भी अनन्तगुणे कष्टों एवं दुःखों वाले नरकों तथा अन्य गतियों का अपना जाना-माना सजीव वर्णन करके माता-पिता से दीक्षा की अनुज्ञा प्राप्त करने में कैसे सफल हो जाता है ? तथा मृगापुत्र दीक्षा लेने पर किन गुणों से समृद्ध होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुआ ? इन सब विषयों का विशद् वर्णन इस अध्ययन में है।
* सुग्रीव नगर के राजा बलभद्र और रानी मृगावती के पुत्र का नाम 'बलश्री' था, परन्तु वह माता के नाम पर 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध था ।
* एक बार मृगापुत्र अपने महल के गवाक्ष में अपनी पत्नियों के साथ बैठा नगर का दृश्य देख रहा था। तभी उसकी दृष्टि राजपथ पर जाते हुए एक प्रशान्त, शीलसम्पन्न, तप, नियम और संयम के धारक तेजस्वी साधु पर पड़ी। मृगापुत्र अनिमेष दृष्टि से देखकर विचारों की गहराई में डूब गया—ऐसा साधु पहले भी मैंने कहीं देखा है। कब देखा है ? यह याद नहीं आता, परन्तु देखा अवश्य है। उसे इस तरह ऊहापोह करते-करते पूर्वजन्म का स्मरण हो आया कि मैं भी पूर्वजन्म में ऐसा ही साधु था । साथ ही साधुजीवन की श्रेष्ठता, चर्या, कर्मों से मुक्ति का सर्वोत्तम पथ आदि आदि की स्मृतियां करवटें लेने लगीं। अब उसे सांसारिक भोग, रिश्ते-नाते, धन-वैभव आदि सब बन्धनरूप लगने लगे। उसके लिए सांसारिक वृत्ति में रहना असह्य हो उठा।
* वह अपने माता-पिता के पास गया और बोला 'मैं साधुदीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ, आप मुझे अनुज्ञा दें। मुझे अब संसार के कामभोगों से विरक्ति और संयम में अनुरक्ति हो गई है।' फिर उसने माता-पिता के समक्ष भोगों के कटु परिणाम बताए, शरीर एवं संसार की अनित्यता का वर्णन किया। यह भी कहा कि धर्मरूपी पाथेय को लिये बिना जो परभव में जाता है, वह व्याधि, रोग, दुःख, शोक आदि से पीड़ित होता है। जो धर्माचरण करता है, वह इहलोकपरलोक में अत्यन्त सुखी हो जाता है। (गा. १ से २३ तक)
* परन्तु मृगापुत्र के माता-पिता यों सहज ही उसे दीक्षा की अनुमति देने वाले नहीं थे । वे उसके समक्ष संयम, महाव्रत एवं श्रमणधर्म - पालन के बड़े-बड़े कष्टों और दुःखों का वर्णन करने लगे और अंत में उसके समक्ष प्रस्ताव रखा – यदि दीक्षा ही लेना है तो भुक्तभोगी बन कर लेना, अभी क्या जल्दी है ? (गा. २४ से ४३ तक)