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उत्तराध्ययनसूत्र
पालन किया। एक बार भगवान् महावीर की धर्मदेशना सुनकर सुदर्शन श्रेष्ठी प्रतिबुद्ध हुआ, याचकों को दान देकर प्रभु के चरणों में दीक्षा ग्रहण की। फिर सुदर्शन मुनि ने समस्त पूर्वों का अध्ययन करके उग्र तप से सर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया । १
क्षत्रियमुनि द्वारा सिद्धान्तसम्मत उपदेश
५२. कहं धीरो अहेऊहिं उम्मत्तो व्व महिं चरे? एए विसेसमादाय सूरा दढपरक्कमा ॥
[५२] इन (भरत आदि) शूरवीर और दृढ़पराक्रमी ( राजाओं) ने जिनशासन में विशेषता देखकर उसे स्वीकार किया था । अतः धीर साधक (एकान्त क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान रूप) कुहेतु वादों से प्रेरित होकर उन्मत्त की तरह कैसे पृथ्वी पर विचर सकता है ?
५३. अच्चन्तनियाणखमा सच्चा मे भासिया वई । अतरिंसु तरन्तेगे तरिस्सन्ति अणागया ॥
[ ५३ ] मैंने ('जिनशासन ही आश्रयणीय है ') यह अत्यन्त निदानक्षम ( समुचित युक्तिसंगत ) सत्य वाणी की है । ( इसे स्वीकार कर) अनेक ( जीव अतीत में संसारसमुद्र से) पार हुए हैं, (वर्तमान में ) पार हो रहे हैं और भविष्य में पार होंगे।
५४. कहं धीरे अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे? सव्वसंगविनिम्मुक्के सिद्धे हवइ नीरए ॥
—त्ति बेमि ।
[५४] धीर साधक (पूर्वोक्त एकान्तवादी) अहेतुवादों से अपने आपको कैसे परिवासित करे? जो सभी संगों से विनिर्मुक्त है, वही नीरज (कर्मरज से रहित) होकर सिद्ध होता है। ऐसा मैं कहता हूं । विवेचन — उम्मत्तो व्व :- उन्मत्त — ग्रहगृहीत की तरह, सत्त्व रूप वस्तु का अपलाप करके या असत्प्ररूपणा करके ।
तात्पर्य — गाथा ५१ द्वारा क्षत्रियमुनि का अभिप्राय यह है कि जैसे पूर्वोक्त महान् आत्माओं ने कुवादिपरिकल्पित क्रियावाद आदि को छोड़कर जिनशासन को अपनाने में ही अपनी बुद्धि निश्चित कर ली थी, वैसे आपको (संजय मुनि को ) भी धीर होकर इसी जिनशासन में अपना चित्त दृढ़ करना चाहिए।
१.
अच्चंतनियाणखमा : दो अर्थ - (१) अत्यन्त निदानों— कारणों— हेतुओं से सक्षम — युक्त । अथवा (२) अत्यन्त रूप से निदान – कर्ममलशोधन में सक्षम – समर्थ । अत्ताणं परियावसे – कुहेतुओं से आत्मा को शासित कर सकता है, अर्थात् आत्मा को कैसे कुहेतुओं के स्थान में आवास करा सकता है ? सव्वसंगविनिम्मुक्के – समस्त संग - द्रव्य से धन-धान्यादि और भाव से मिथ्यात्वरूप क्रिया - वादादि से रहित । २
॥ संजयीय (संयतीय ) : अठारहवां अध्ययन सम्पूर्ण ॥
उत्तरा (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र ९१ से ९३ तक २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४९ - ४५०
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