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अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय
२८५ अनार्ता – सकल दोषों से रहित होने से अबाधित कीर्ति वाले । (३) आज्ञार्थाकृति –आज्ञा का अर्थ है -आगम तथा अर्थ शब्द का अर्थ है -हेतु, अर्थात् -आज्ञार्थक आकृति -अर्थात् मुनिवेषात्मक आकृति।
रजं गुणसमिद्धं : दो अर्थ -(१) राज्य के गुणों, अर्थात्-स्वामी, अमात्य, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग और सैन्य; इन सप्तांग राज्यगुणों से समृद्ध अथवा (२) गुणों-शब्दादि विषयों से समृद्ध–सम्पन्न - राज्य।
विजय राजा का संयम में पराक्रम -द्वारकानगरी के ब्रह्मराज और उनकी पटरानी सुभद्रा का अंगजात द्वितीय बलदेव था। उसका छोटा भाई द्विपृष्ठ वासुदेव था। जो ७२ लाख वर्ष की आयु पूर्ण करके नरक में गया। जबकि विजय ने वैराग्यपूर्वक प्रव्रजित होकर केवलज्ञान प्राप्त किया और ७५ लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर मोक्ष प्राप्त किया। महाबल राजर्षि ने सिद्धिपद प्राप्त किया
५१. तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा।
महाबलो रायरिसी अदाय सिरसा सिरं॥ [५१] इसी प्रकार अनाकुल चित्त से उग्र तपश्चर्या करके राजर्षि महाबल ने सिर देकर सिर (शीर्षस्थ पद मोक्ष) प्राप्त किया।
विवेचन –अद्दाय सिरसा सिरं : दो भावार्थ - (१) सिर देकर अर्थात्-जीवन से निरपेक्ष होकर सिर–समस्त जगत् का शीर्षस्थ सर्वोपरि—मोक्ष, ग्रहण—स्वीकार किया। (२) शीर्षस्थ –सर्वोत्तम, श्री—केवलज्ञान -लक्ष्मी, ग्रहण करके परिनिर्वाण को प्राप्त किया। ३
ल राजर्षि का वत्तान्त महाबल हस्तिनापर के अतल बलशाली बल राजा का पत्र था। यौवन में पदार्पण करते ही प्रभावती रानी और पिता बल राजा ने ८ राजकन्याओं के साथ महाबल का विवाह किया।
एक बार नगर के बाहर उद्यान में विमलनाथ तीर्थंकर के शासन के धर्मघोष आचार्य पधारे। महाबलकुमार ने उनके दर्शन किये, प्रवचन सुना तो संसार से विरक्ति और मुनिधर्म के पालन में तीव्र रुचि हुई। मातापिता से दीक्षा की अनुज्ञा लेने गया तो उन्होंने मोहवश उसे गृहस्थाश्रम में रह कर सांसारिक सुख भोगने
और पिछली वय में दीक्षा लेने को कहा। परन्तु उसने उन्हें भी विविध युक्तियों से समझाया तो उन्होंने निरुपाय होकर दीक्षा की आज्ञा दी।
महाबलकुमार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर सहस्रमानववाहिनी शिविका पर आरूढ होकर सर्वसैन्य, नृत्य, गीत, वाद्य आदि से गगन गुंजाते हुए नगर के बाहर उद्यान में पहुँचा। माता-पिता ने दीक्षा की आज्ञा दी। समस्त वस्त्राभूषण आदि उतार कर अपने केशों का लोच किया और गुरुदेव से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करने के बाद महाबल मुनि ने १२ वर्ष तक तीव्र तपश्चरण किया। चौदह पूर्वो का अध्ययन किया और अन्तिम समय में एक मास का अनशन करके आयुष्य पूर्ण कर पंचम देवलोक में गए। वहाँ का १० सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर वे वाणिज्यग्राम में सुदर्शन श्रेष्ठी के रूप में उत्पन्न हुए। चिरकाल तक श्रावकधर्म का १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४९
२. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा.३ पृ. ४४७ ३. बृहवृत्ति, पत्र ४४९