________________
२८४
उत्तराध्ययनसूत्र विरुद्ध केशी नृप के कान भर दिये। राजा केशी ने उनकी चाल में आकर राज्य में घोषणा करवा दी- 'जो उदायन मुनि को रहने को स्थान देगा, वह राजा का अपराधी और दण्ड का भागी समझा जाएगा।' सिर्फ एक कुम्भकार ने अपनी कुम्भनिर्माणशाला में उन्हें ठहरने को स्थान दिया। किन्तु केशी राजा दुष्ट अमात्यों के साथ आकर विनयपूर्वक प्रार्थना करने लगा – 'भगवन्! आप रुग्ण हैं, अतः यह स्थान आपके ठहरने योग्य नहीं है। आप उद्यान में पधारें, वहाँ राजवैद्यों द्वारा आपकी चिकित्सा होगी।' इस पर राजर्षि उदायन उद्यान में आकर ठहर गए। वहाँ केशी राजा ने षड्यन्त्र कर वैद्यों द्वारा विषमिश्रित औषध पिला दी। कुछ ही देर में विष समस्त शरीर में व्याप्त हो गया, राजर्षि को यह पता लग गया कि 'केशी राजा ने विषमिश्रित
औषध दिलाई है। पर सोचा -इससे मेरी आत्मा का क्या नष्ट होने वाला है? शरीर भले ही नष्ट हो जाए!' पवित्र अध्यवसाय के प्रभाव से राजर्षि ने केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया।
रानी प्रभावती ने देवी के रूप में जब यह सारा काण्ड अवधिज्ञान से जाना तो उक्त कुम्भकार को सिनपल्लीग्राम में पहुँचा कर सारे वीतभयनगर को धूलिवर्षा करके ध्वस्त कर दिया। काशीराज द्वारा कर्मक्षय
४९. तहेव कासीराया सेओ-सच्चपरक्कमे।
कामभोगे परिच्चज पहणे कम्ममहावणं॥ [४९] इसी प्रकार श्रेय और सत्य (संयम) में पराक्रमी काशीराज ने कामभोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन को ध्वस्त किया।
विवेचन -काशीराज नन्दन की कथा - वाराणसी में अठारहवें तीर्थंकर श्री अरनाथ भगवान् के शासन में अग्निशिख राजा था। उसकी दो पटरानियां थीं –जयन्ती और शेषवती। जयन्ती से नन्दन नामक सप्तम बलदेव और शेषवती से दत्त नामक सप्तम वासुदेव हुए। यथावसर राजा ने दत्त को राज्य सौंपा। इसने नन्दन की सहायता से भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर विजय प्राप्त की। अपनी छप्पन हजार वर्ष की आयु दत्त ने अर्धचक्री की लक्ष्मी एवं भोग भोगने में ही समाप्त की। अत: वह मर करके पंचम नरक भूमि में गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर नन्दन ने दीक्षा ग्रहण की, चारित्रपालन कर अन्त में केवलज्ञान पाया
और ५६ हजार वर्ष की कुल आयु पूर्ण करके सिद्धि प्राप्त की। विजय राजा राज्य त्याग कर प्रवजित
५०. तहेव विजओ राया अणढाकित्ति पव्वए।
रजं तु गुणसमिद्धं पयहित्तु महाजसो॥ [५०] इसी प्रकार निर्मल कीर्ति वाले महायशस्वी विजय राजा ने गुणसमृद्ध राज्य का परित्याग करके प्रव्रज्या ग्रहण की।
विवेचन–अणटाकित्ती : तीन अर्थ-(१) अनातकीर्ति -अनार्ता -आर्तध्यानरहित होकर दीन. अनाथ आदि को दान देने से होने वाली कीर्ति -प्रसिद्धि से उपलक्षित। (२) अनातकीर्ति१. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ३९७ से ४४१ तक (संक्षिप्त) २. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र ९०