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अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय
२८३ उक्त व्यन्तरदेव (कनकमाला का पिता) विदा लेकर उक्त पर्वत से चला गया, तब सिंहरथ राजा ने कनकमाला को अपने पिता के वियोग का दुःखानुभव न हो इस विचार से, वहीं एक नया नगर बसाया। एक बार राजा कार्तिकी पूर्णिमा के दिन नगर से बाहर चतुर्विध सैन्य सहित गए। वहीं वन में एक स्थान पर पड़ाव डाला। राजा ने वहाँ एक आम्रवक्ष देखा जो नये पत्तों और मंजरियों से सशोभित एवं गोलाकार प्रतीत हो रहा था। राजा ने मंगलार्थ उस वृक्ष की एक मंजरी तोड़ ली। इसे देखकर समस्त सैनिकों ने उस वृक्ष की मंजरी व पत्ते आदि तोड़ कर उसे ढूंठ-सा बना दिया। राजा जब वन में घूम कर वापस लौटा तो वहाँ हराभरा आम्रवृक्ष न देखकर पूछा —'मंत्रिप्रवर! यहाँ जो आम का वृक्ष था, वह कहाँ गया?' मंत्री ने कहा - 'महाराज! इस समय यहाँ जो ढूंठ के रूप में मौजूद है, यही वह आम्रवृक्ष है।' सारा वृत्तान्त सुनकर पहले के श्रीसम्पन्न आम्रवृक्ष को अब श्रीरहित देखकर संसार की प्रत्येक श्रीसम्पन्न वस्तु पर विचार करते-करते नग्गति राजा को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने प्रत्येकबुद्ध रूप से दीक्षा ग्रहण की। मुनि बनकर तपसंयम का पालन करते हुए समाधिमरणपूर्वक शरीरत्याग करके अन्त में सिद्धिगति पाई।
___ नमि राजर्षि भी प्रत्येकबुद्ध थे, जिनकी कथा ९वें अध्ययन में अंकित है। इस प्रकार ये चारों ही प्रत्येकबुद्ध महाशुक्र नामक ७ वें देवलोक में १७ सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले देव हुए। वहाँ से च्यव कर एक समय में ही मुनिदीक्षा ली और एक ही साथ मोक्ष में गए।१ सौवीरनृप उदायन राजा
४८. सोवीररायवसभो चिच्चा रजं मुणी चरे।
उद्दायणो पव्वइओ पत्तो गइमणुत्तरं॥ [४८] सौवीरदेश के श्रेष्ठ राजा उदायन राज्य का परित्याग करके प्रव्रजित हुए। मुनिधर्म का आचरण किया और अनुत्तरगति प्राप्त की।
विवेचन-उदायन राजा को विरक्ति, प्रवज्या और मुक्ति-सिन्धु-सौवीर आदि सोलह देशों का और वीतभयपत्तन आदि ३६३ नगरों का पालक राजा उदायन धैर्य, गाम्भीर्य और औदार्य आदि गुणों से अलंकृत था। उसकी पटरानी का नाम प्रभावती था, जो चेटक राजा की पुत्री और जैनधर्मानुरागिणी थी। प्रभावती ने अभिजित नामक एक पुत्र को जन्म दिया।
यह वही उदायन राजा था, जिसने स्वर्णगुटिका दासी का अपहरण करके ले जाने वाले अपराधी चण्डप्रद्योतन के साथ सांवत्सरिक क्षमायाचना करके उसे बन्धनमुक्त कर देने की उदारता बताई थी।
एक दिन राजा उदायन को पौषध करके धर्मजागरणा करते हुए ऐसा शुभ अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि 'अगर भगवान् महावीर यहाँ पधारें तो मैं दीक्षाग्रहण करके अपना जीवन सफल बनाऊँ।' भगवान् उदायन के इन विचारों को ज्ञान से जानकर चम्पापुरी से वीतभयपत्तन के उद्यान में पधारे। उदायन ने प्रभु के समक्ष जब दीक्षाग्रहण के विचार प्रस्तुत किये तो भगवान् ने कहा - 'शुभ कार्य में विलम्ब न करो।' उदायन ने घर आकर विचार किया और आत्म-कल्याण से विमुख कर देने वाला राज्य पुत्र अभिजितकुमार को न सौंपकर अपने भानजे केशी को सौंपा तथा स्वयं ने वीरप्रभु से दीक्षा ग्रहण की। उदायन मुनि मासक्षमण (मासोपवास) तप द्वारा कर्म का क्षय एवं शरीर को कृश करने लगे। पारणे के दिन भी वे अन्त-प्रान्त आहार लेते थे। इस कारण उनका शरीर रोगग्रस्त हो गया। जब मुनिवर वीतभयपत्तन पधारे तो अकारणशत्रु दुष्ट मन्त्रियों ने उनके १. उत्तराध्ययनसूत्र, प्रियदर्शिनीटाका, भा. ३, पृ. ३१० से ३९६ (संक्षिप्त)