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उत्तराध्ययनसूत्र तब उसमें से एक अत्यन्त चमकता हुआ रत्नमय मुकुट मिला, उसे पहन कर चित्रशाला का निर्माण पूर्ण होने पर राजा जब राजसिंहासन पर बैठते थे तब उस मुकुट के प्रभाव से दर्शकों को दो मुख वाले दिखाई देते थे। इसलिए लोगों में राजा 'द्विमुखराय' के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
राजा के सात पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्री का नाम मदनमंजरी था। जो उज्जयिनीनरेश चण्डप्रद्योतन को दी गई थी।
एक बार इन्द्रमहोत्सव के अवसर पर राजा ने नागरिकों को इन्द्रध्वज को स्थापित करने का आदेश दिया। वैसा ही किया गया। पुष्पमालाओं, मणि, माणिक्य आदि रत्नों एवं रंगबिरंगे वस्त्रों से उसे अत्यन्त सुसज्जित किया गया। उस सुसज्जित इन्द्रध्वज के नीचे नृत्य, वाद्य, गीत होने लगे, दीनों को दान देना प्रारम्भ हुआ, सुगन्धित जल एवं चूर्ण उस पर डाला जाने लगा।
इस प्रकार विविध कार्यक्रमों से उत्सव की शोभा में वृद्धि देख राजा को आपार हर्ष हुआ। आठवें दिन उत्सव की समाप्ति होते ही समस्त नागरिक अपने वस्त्र, रत्न, आभूषण आदि को ले-लेकर अपने घर
आ गए। अब वहाँ सिर्फ एक सूखा लूंठ बच गया था, जिसे नागरिकों ने वहीं डाल दिया था। उसी दिन राजा किसी कार्यवश उधर से गुजरा तो इन्द्रध्वज को धूल में सना, कुस्थान में पड़ा हुआ तथा बालकों द्वारा घसीटा जाता हुआ देखा। इन्द्रध्वज की ऐसी दुर्दशा देख राजा के मन में विचार आया —'अहो! कल जो सारी जनता के आनन्द का कारण बना हुआ था, आज वही विडम्बना का कारण बना हुआ है। संसार के सभी पदार्थों -धन, जन, मकान, महल, राज्य आदि की यही दशा होती है। अतः इन पर आसक्ति रखना कथमपि उचित नहीं है। क्यों न मैं अब दुर्दशा की कारणभूत इस राज्यसम्पदा पर आसक्ति का परित्याग करके एकान्त श्रेयस्कारिणी मोक्ष-राज्यलक्ष्मी का वरण करूं? राजा ने इस विचार को कार्यान्वित करने हेतु राज्यादि सर्वस्व त्याग कर स्वयं मुनिदीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् प्रत्येकबुद्ध द्विमुखराय ने वीतरागधर्म का प्रचार करके अन्त में सिद्धगति प्राप्त की।
प्रत्येकबुद्ध नग्गतिराजा- भरतक्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा जितशत्रु ने चित्रकार चित्रांगद की कन्या कनकमंजरी की वाक्चातुरी से प्रभावित होकर उससे विवाह किया और उसे अपनी पटरानी बना दिया। राजा और रानी ने विमलचन्द्राचार्य से श्रावकव्रत ग्रहण किये। चिरकाल तक पालन करके वे दोनों देवलोक में देव हुए। वहाँ से च्यव कर कनकमंजरी का जीव वैताढ्यतोरणपुर में दृढशक्ति राजा की गुणमाला रानी से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ। नाम रखा गया कनकमाला । वासव नामक विद्याधर उसका अपहरण करके वैताढ्यपर्वत पर ले आया। कनकमाला के बड़े भाई कनकतेज को पता लगा तो वह वहाँ जा पहुंचा। वासव के साथ उसका युद्ध हुआ। उसमें दोनों ही मारे गए। इसी समय एक व्यन्तर देव आया, उसने भाई के शोक से ग्रस्त कनकमाला को आश्वासन देते हुए कहा कि तुम मेरी पुत्री हो।' इतने में कनकमाला का पिता दृढशक्ति भी वहाँ आ गया। व्यन्तर देव ने कनकमाला को मततल्य दिखाया. जिससे उसे संसार से विरक्ति हो गई। दढशक्ति ने स्वयं मनिदीक्षा ग्रहण कर ली। कनकमाला तथा उस देव ने उन्हें वन्दना की। अपना वत्तान्त सनाया। मनिराज से व्यन्तरदेव ने क्षमायाचना की। जातिस्मरणज्ञान से कनकमाला ने व्यन्तरदेव को अपना पूर्वजन्म का पिता जानकर उससे अपने भावी पति के विषय में पूछा तो उसने कहा —तुम्हारा पूर्वभव का पति जितशत्रु, देवलोक से च्यव कर दृढसिंह राजा के यहाँ सिंहरथ नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है। वही तुम्हारा इस जन्म में भी पति होगा। तदनुसार कनकमाला का विवाह सिंहस्थ के साथ सम्पन्न हुआ। सिंहस्थ को बार-बार अपने नगर जाना और वापस इस पर्वत पर आना होता था, इस कारण वह 'नगगति' नाम से प्रसिद्ध हो गया।