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उत्तराध्ययनसूत्र त्याग करके १० हजार वर्ष तक उग्र आचार का पालन किया। अन्त में घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। हरिषेण चक्रवर्ती
४२. एगच्छत्तं पसाहित्ता महिं माणनिसूरणो।
हरिसेणो मणुस्सिन्दो पत्तो गइमणुत्तरं ॥ [४२] शत्रु के मानमर्दक हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी को एकच्छत्र साध (अपने अधीन) करके अनुत्तरगति (मोक्षगति) प्राप्त की।
विवेचन - माणनिसूरणो- अहंकार-विनाशक। पसाहित्ता- साध कर या अधीन करके, अथवा एकच्छत्र शासन करके। मणुस्सिदो : मनुष्येन्द्र–चक्रवर्ती।
हरिषेण चक्रवर्ती द्वारा अनुत्तरगति प्राप्ति - काम्पिल्यनगर के महाहरि राजा की 'मेरा' नाम की महारानी की कुक्षि से हरिषेण नामक पुत्र हुए। वयस्क होने पर पिता ने उन्हें राज्य सौंपा। राज्यपालन करतेकरते उन्हें चक्रवर्तीपद प्राप्त हुआ। परन्तु लघुकर्मी हरिषेणचक्री को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं ने महान् ऋद्धि त्याग कर गुरुचरणों में दीक्षा ले ली। उग्रतप से क्रमशः चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्त में मोक्ष पहुँचे। जय चक्रवर्ती ने मोक्ष प्राप्त किया
४३. अनिओ राजसहस्सेहिं सुपरिच्चाई दमं चरे।
जयनामो जिणक्खायं पत्तो गइमणुत्तरं॥ [४३] हजार राजाओं सहित श्रेष्ठ त्यागी 'जय' चक्रवर्ती ने राज्य आदि का परित्याग कर जिनोक्त संयम का आचरण किया और (अन्त में) अनुत्तरगति प्राप्त की।
विवेचन–जय चक्रवर्ती की संक्षिप्त जीवनगाथा—राजगृहनगर के राजा समुद्रविजय की वप्रा नाम की रानी थी। उनके जय नामक एक पुत्र था। उसने क्रमशः युवावस्था में पदार्पण किया। पिता के राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली, फिर कुछ काल बाद चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ और दीर्घकाल तक चक्रवर्ती की ऋद्धि-सिद्धि भोगी। वैराग्य हो गया। जयचक्री ने अपने पत्र को राज्य सौंप कर चारित्र अंगीकार किया। फिर तपश्चरण रूप वायु से कर्मरूपी बादलों का नाश किया। श्री जय चक्रवर्ती कुल साढ़े तीन हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर मोक्ष में गए।३ दशार्णभद्र राजा का निष्क्रमण
४४. दसण्णरजं मुइयं चइत्ताण मुणी चरे।
दसण्णभद्दो निक्खन्तो सक्खं सक्केण चोइओ॥ १. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र ६६ से ७४ तक २. उत्तर. (गुजराती भाषान्तर), भा. २, पत्र ७४ ३. उत्तर. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र ७५