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________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय २७९ [४४] साक्षात् शक्रेन्द्र से प्रेरित होकर दशार्णभद्र राजा ने अपने प्रमुदित (समस्त उपद्रवों से रहित) दशार्णदेश के राज्य को छोड़ कर अभिनिष्क्रमण किया और मुनि होकर विचरण करने लगे । विवेचन — देवेन्द्र से प्रेरित दशार्णभद्र राजा मुनि बने — भारतवर्ष के दशार्णपुर का राजा दशार्णभद्र था। वह जिनोक्त धर्म में अनुरक्त था। एक बार नगर के बाहर उद्यान में तीर्थंकर भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ, सुन कर दशार्णभद्र राजा के मन में विचार हुआ— आज तक भगवान् को किसी ने वन्दन न किया हो, उस प्रकार समस्त वैभव सहित मैं प्रभु को वन्दन करने जाऊँ । तदनुसार घोषणा करवा कर उसने सारे नगर को दुलहिन की तरह सजाया । जगह-जगह माणिक्य के तोरण बंधवाए, नट लोग अपनी कलाओं का प्रदर्शन करने लगे। राजा ने स्नान करके उत्तम वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर उत्तम हाथी पर आरूढ़ होकर प्रभु -वन्दन के लिए प्रस्थान किया । मस्तक पर छत्र धारण किया और चामर ढुलाते हुए सेवकगण जयजयकार करने लगे । सामन्त राजा तथा अन्य राजा, राजपुरुष और चतुरंगिणी सेना तथा नागरिकगण सुसज्जित होकर पीछे-पीछे चल रहे थे। राजा दशार्णभद्र साक्षात् इन्द्र-सा लग रहा था । राजा के वैभव के इस गर्व को अवधिज्ञान से जान कर इन्द्र ने विचार किया—- प्रभुभक्ति में ऐसा गर्व उचित नहीं है । अतः इन्द्र ने ऐरावण देव को आदेश देकर कैलाशपर्वतसम उत्तुंग ६४ हजार सुसज्जित शृंगारित हाथियों और देव - देवियों की विकुर्वणा की । अब इन्द्र की शोभायात्रा के आगे दशार्णभद्र की शोभायात्रा एकदम फीकी लगने लगी । यह देख कर दशार्णभद्र राजा के मन में अन्त:प्रेरणा हुई— कहाँ इन्द्र का वैभव और कहाँ मेरा तुच्छ वैभव ! इन्द्र ने यह लोकोत्तर वैभव धर्माराधना (पुण्यप्रभाव) से ही प्राप्त किया है, अतः मुझे भी शुद्ध धर्म की पूर्ण आराधना करनी चाहिए, जिससे मेरा गर्व भी कृतार्थ हो । यो संसार से विरक्त दशार्णभद्र राजा ने प्रभु महावीर से दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। अपने हाथ से केशलोच किया । विश्ववत्सल प्रभु ने राजा को स्वयं दीक्षा दी। इन्द्र ने दशार्णभद्र राजर्षि को इतनी विशाल ऋद्धि एवं साम्राज्य का सहसा त्याग कर तथा महाव्रत ग्रहण करके अपनी प्रतिज्ञा - पालन करने के हेतु धन्यवाद दिया वैभव में हमारी दिव्य शक्ति आप बढ़ कर है, परन्तु त्याग एवं व्रत ग्रहण करने की शक्ति मुझ में नहीं है। राजर्षि उग्र तपश्चर्या से सर्व कर्म क्षय करके मोक्ष पहुँचे । १ नाम राजर्षि की धर्म में सुस्थिरता ४५. नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वइदेही सामण्णे पज्जुवट्ठिओ ॥ - [४५] साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित किये जाने पर भी विदेह के अधिपति नमि गृह का त्याग करके श्रमणधर्म में भलीभांति स्थिर हुए एवं स्वयं को अतिविनम्र बनाया। विवेचन—सक्खं सक्केण चोइओ - साक्षात् शक्रेन्द्र ने. ब्राह्मण के वेष में आकर क्षत्रियोचित कर्त्तव्यपालन की प्रेरणा की, किन्तु नमि राजर्षि श्रमण - संस्कृति के सन्दर्भ में इन्द्र का युक्तिसंगत समाधान करके श्रमणधर्म में सुस्थिर रहे । नमि राजर्षि की कथा इसी सूत्र के अ. ९ में दी गई है। २ १. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर), भा. २, पत्र ७५ से ८० २. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र ८०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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