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उत्तराध्ययनसूत्र दयाए परिनिव्वुडे—दया का अर्थ यहाँ संयम किया गया है। अर्थात् संयमसाधना से वे परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
सगर चक्रवर्ती की संयमसाधना-अयोध्या नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा जितशत्रु और विजया रानी से 'अजित' नामक पुत्र हुआ, जो आगे चल कर द्वितीय तीर्थंकर हुए। जितशत्रु राजा का छोटा भाई सुमित्र युवराज था, उसकी रानी यशोमती से एक पुत्र हुआ, उसका नाम रखा—'सगर'। वे आगे चल कर चक्रवर्ती हुए।
दोनों कुमारों के वयस्क होने पर जितशत्रु राजा ने अजित को गद्दी पर बिठाया और सगर को युवराज पद दिया। जितशत्रुराजा ने सुमित्र सहित दीक्षा ग्रहण की।
अजित राजा ने कछ समय तक राज्य का पालन करके धर्मतीर्थप्रवर्तन का समय आने पर. सगर को राज्य सौंप कर चारित्र ग्रहण किया, तीर्थ स्थापना की। सगर ने राज्य करते हुए भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती पद पाया। सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़ा जह्न कुमार था। उस के विनयादि गुणों से सन्तुष्ट होकर सगरचक्री ने उसे इच्छानुसार मांगने को कहा। इस पर उसने कहामेरी इच्छा है कि मैं सब भाइयों के साथ चौदह रत्न एवं सर्वसैन्य साथ में लेकर भूमण्डल में पर्यटन करूं । सगर ने स्वीकृति दी। जह्रकुमार ने प्रस्थान किया। घूमते-घूमते वे सब विशिष्ट शोभासम्पन्न हैम पर्वत पर चढ़े। सहसा विचार आया कि इस पर्वत की रक्षा के लिए इसके चारों ओर खाई खोदनी चाहिए। फलत: वे सब दण्डरत्नों से खाई खोदने लगे। खोदते-खोदते विशेष भूमि के नीचे ज्वलनप्रभ नागराज अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। विनयपूर्वक उसे शान्त किया। परन्तु फिर दूसरी बार उस खाई को गंगा नदी के जल से भरने का उपक्रम किया। नागराज ज्वलनप्रभ इस बार अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने दृष्टिविष सर्प भेजे, उन्होंने सभी कुमारों (सागरपुत्रों) को नेत्र की अग्निज्वालाओं से भस्म कर दिया। सेना में हाहाकार मच गया। चिन्तित सेना से एक ब्राह्मण ने चक्रवर्ती पुत्रों के मरण का समाचार सुना तो उसने सगर चक्रवर्ती को विभिन्न युक्तियों से समझाया। पहले तो वे पुत्र शोक से मूर्छित होकर गिर पड़े, बाद में स्वस्थ हुए। उन्हें संसार से विरक्ति हो गई। कुछ समय बाद जह्नकुमार के पुत्र भगीरथ को उन्होंने राज्य सौंपा और स्वयं ने अजितनाथ भगवान् से दीक्षा ग्रहण की। बहुत तपश्चर्या की और कर्मक्षय करके सिद्ध पद प्राप्त किया। चक्रवर्ती मघवा ने प्रव्रज्या अंगीकार की
३६. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्ढिओ।
पव्वजमब्भुवगओ मघवं नाम महाजसो॥ [३६] महान् ऋद्धिमान्, महायशस्वी मघवा नामक तीसरे चक्रवर्ती ने भारतवर्ष (षट्खण्डव्यापी) का (साम्राज्य) त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार की।
विवेचन—मघवा चक्रवर्ती द्वारा प्रव्रज्या धारण-श्रावस्ती के समुद्रविजय राजा की रानी भद्रा से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम 'मघवा' रखा गया। युवावस्था में आने पर समुद्रविजय ने मघवा को राज्य सौंपा। भरतक्षेत्र को साध कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। चिरकाल चक्रवर्ती के वैभव का उपभोग करते हुए एक दिन, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४८ २. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३ . १५३ से १७४ तक का सारांश