________________
मा
अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय
२७१ भरत चक्रवर्ती द्वारा प्रव्रज्या-ग्रहण-भरत चक्रवर्ती प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। भगवान् के दीक्षित होने के बाद ही उन्हें चक्रवर्तीपद प्राप्त हुआ था। भरतक्षेत्र ( भारतवर्ष) के छह खण्डों के वे अधिपति थे। सभी प्रकार के कामसुख एवं वैभव-विलास की सामग्री उन्हें प्राप्त थी। अपने वैभव के अनुरूप वे दान एवं साधर्मिकवात्सल्य भी करते थे। दीन-हीन जनों की रक्षा के लिए प्रतिक्षण तत्पर रहते थे।
एक दिन भरत चक्रवर्ती मालिश, उबटन और स्नान करके सर्ववस्त्रालंकारों से विभूषित होकर अपने शीशमहल में आए। वे दर्पण में अपने शरीर की शोभा का निरीक्षण कर रहे थे। तभी एक अंगूठी अंगुली से निकल कर गिर पड़ी। दर्पण में अंगूठी से रहित अंगुली शोभारहित लगी। चक्रवर्ती ने दूसरी अंगूठी उतारी तो वह भी सुहावनी नहीं लगी। फिर क्रमश: एक-एक अलंकार उतारते हुए अन्त में शरीर से समस्त अलंकार उतार दिये। अब शरीर दर्पण में देखा तो शोभारहित प्रतीत हुआ। इस पर चक्रवर्ती ने चिन्तन किया-अहो! यह शरीर कितना असुन्दर है। इसका अपना सौन्दर्य तो कुछ भी नहीं है। ऐसे मलमूत्र से भरे घणित. अपवित्र और असार देह को सन्दर मान कर मढ लोग इसमें आसक्त होकर इस शरीर को वस्त्राभषण आदि से सुशोभित करके, इसका रक्षण करने तथा इसे उत्तम खानपान से पुष्ट बनाने के लिए अनेक प्रकार के पापकर्म करते हैं। वास्तव में वस्त्राभूषणादि या मनोज्ञ खानपान आदि सभी वस्तएँ इस असन्दर शरीर के सम्पर्क से अपवित्र और विनष्ट हो जाती हैं। परन्तु मोक्ष के साधनरूप चिन्तामणिसम इस मनुष्यजन्म को पाकर शरीर के लिए पापकर्म करके मनुष्यजन्म को हार जाना ठीक नहीं है। इत्यादि शुभध्यान करते हुए अधिकाधिक संवेग को प्राप्त चक्रवर्ती क्षपक श्रेणी पर आरूढ हुए। फिर शीघ्र ही चार घातिकर्मों का भय करके भावचारित्री बनकर केवलज्ञान प्राप्त किया। ठीक उसी समय विनयावनत होकर शक्रेन्द्र उपस्थित हुआ
और हाथ जोड़कर कहा—हे पूज्य! अब आप द्रव्यलिंग अंगीकार करें, जिससे हम दीक्षामहोत्सव तथा केवलज्ञानमहोत्सव करें। यह सुनकर उन्होंने मुनिवेष धारण किया और अपने मस्तक का पंचमुष्टि लोच किया। फिर बादलों में से सूर्य निकलता है, वैसे ही राजर्षि शीशमहल से निर्लिप्त होकर बाहर निकले। भरत महाराज को मुनिवेष में देखकर १० हजार अन्य राजा भी मुनिधर्म में दीक्षित होकर उनके अनुयायी बन गए। वे कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवलीपर्याय में भूण्डल में भव्यजीवों को सद्धर्मपान कराते हुए विचरण करके अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। सगर चक्रवर्ती को संयमसाधना से निर्वाणप्राप्ति
३५. सगरो वि सागरन्तं भरहवासं नराहिवो।
इस्सरियं केवलं हिच्चा दयाए परिनिव्वुडे॥ [३५] सगर नराधिप (चक्रवर्ती) भी सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं परिपूर्ण ऐश्वर्य का त्याग कर दया (–संयम) की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
विवेचन—सागरान्तं-तीन दिशाओं में समुद्रपर्यन्त (और उत्तर दिशा में हिमवत् पर्यन्त)।
केवलं इस्सरियं—केवल अर्थात्-परिपूर्ण या अनन्यसाधारण ऐश्वर्य अर्थात्-आज्ञा और वैभव आदि।
१. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र २७ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. १५१