SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० ३२. जं च मे पुच्छसी काले सम्मं सुद्धेण चेयसा । ताई पाउकरे बुद्धे तं नाणं जिणसासणे ॥ [३२] जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे बुद्ध सर्वज्ञ श्री महावीर स्वामी ने प्रकट किया है। अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है। ३३. उत्तराध्ययनसूत्र किरियं च रोयए धीरे अकिरियं परिवज्जए । दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने धम्मं चर सुदुच्चरं ॥ [३३] धीर साधक क्रियावाद में रुचि रखे और अक्रिया (वाद) का त्याग करे। सम्यग्दृष्टि से दृष्टिसम्पन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो । विवेचन—पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो : क्षत्रियमुनि कहते हैं— मैं शुभाशुभसूचक अंगुष्ठप्रश्न आदि से अथवा अन्य साधिकरणों से दूर रहता हूँ। विशेष रूप से परमंत्रों से अर्थात् – गृहस्थकार्य सम्बन्धी आलोचन रूप मंत्रणाओं से दूर रहता हूँ, क्योंकि वे अतिसावद्य हैं। बुद्धे : दो भावार्थ - (१) बुद्ध ( सर्वज्ञ महावीर स्वामी) ने प्रकट किया। (२) स्वयं सम्यक्बुद्ध (अविपरीत बोध वाले) चित्त से उसे मैं प्रकट (प्रस्तुत कर सकता हूँ । कैसे ? इस विषय में क्षत्रियमुनि कहते हैं - जगत् में जो भी यथार्थ वस्तुतत्त्वावबोधरूप ज्ञान प्रचलित है, वह सब जिनशासन में है। अतः मैं जिनशासन में ही स्थित रह कर उसके प्रसाद से बुद्ध — समस्तवस्तुतत्त्वज्ञ हुआ हूँ। तुम भी जिनशासन में स्थित रह कर वस्तुतत्त्वज्ञ (बुद्ध) बन जाओगे, यह आशय है । २ किरियं रोयए : क्रिया अर्थात् जीव के अस्तित्व को मान कर सदनुष्ठान करना क्रियावाद है, उसमें उन-उन भावनाओं से स्वयं अपने में रुचि पैदा करे तथा धीर (मिथ्यादृष्टियों से अक्षोभ्य) पुरुष अक्रिया अर्थात्–अक्रियावाद, जो मिथ्यादृष्टियों द्वारा परिकल्पित तत्-तदनुष्ठानरूप है, उसका त्याग करे। ३ भरत चक्रवर्ती भी इसी उपदेश से प्रव्रजित हुए ३४. एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थ — धम्मोवसोहियं । भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्व ॥ [३४] अर्थ और धर्म से उपशोभित इसी पुण्यपद (पवित्र उपदेश - वचन) को सुन कर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और काम-भोगों को त्याग कर प्रव्रजित हुए थे । विवेचन — अत्थ- धम्मोवसोहियं : विशेषार्थ- - साधना से जिसे प्राप्त किया जाए, वह अर्थ कहलाता है, प्रसंगवश यहाँ स्वर्ग, मोक्ष आदि अर्थ हैं। इस अर्थ की प्राप्ति में उपायभूत अर्थ श्रुति - चारित्ररूप है, इस अर्थ और धर्म में उपशोभित । ४ १. ४-५. वही, पत्र ४४८ बृहदवृत्ति, पत्र ४४६ पुण्णपयं : तीन अर्थ - (१) पुण्य अर्थात् पवित्र — निष्कलंक — दूषणरहित, पद अर्थात् जिनोक्तसूत्र, अथवा (२) पुण्य अर्थात् पुण्य का कारणभूत अथवा (३) पूर्णपद अर्थात् — सम्पूर्णज्ञान | २- ३. वही, पत्र ४४७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy