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अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय परलोक के अस्तित्व का प्रमाण : अपने अनुभव से
२८. अहमासी महापाणे जुइमं वरिससओवमे।
जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा॥ __[२८] मैं (पहले) महाप्राण नामक विमान में वर्षशतोपम आयु वाला द्युतिमान् देव था। मनुष्यों की सौ वर्ष की पूर्ण आयु के समान (देवलोक की) जो दिव्य आयु है वह पाली (पल्योपम) और महापाली (सागरोपम) की पूर्ण (मानी जाती) है।
२९. से चुए बम्भलोगाओ माणुस्सं भवमागए।
अप्पणो य परेसिंच आउं जाणे जहा तहा॥ [२९] ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्यभव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी (यथार्थ रूप से) जानता हूँ।
विवेचन–महापाणे-पांचवें ब्रह्मलोक देवलोक का महाप्राण नामक एक विमान । वरिससओवमेजैसे यहाँ इस समय सौ वर्ष की आयु परिपूर्ण मानी जाती है, वैसे मैंने (क्षत्रियमुनि ने) वहाँ (देवलोक में) परिपूर्ण सौ वर्ष की दिव्य आयु का भोग किया। जो कि यहाँ के वर्षशत के तुल्य वहाँ की पाली (पल्योपमप्रमाण) और महापाली (सागरोपम-प्रमाण) आयु पूर्ण मानी जाती है। यह उपमेय काल है। असंख्यात काल का एक पल्य होता है और दस कोटाकोटी पल्यों का एक सागरोपम काल होता है।
क्षत्रियमुनि द्वारा जातिस्मरणस्वरूप अतिशय ज्ञान की अभिव्यक्ति-आशय यह है कि मैं अपना और दूसरे जीवों का आयुष्य यथार्थ रूप से जानता हूँ। अर्थात्-जिसका जिस प्रकार जितना आयुष्य होता है, उसी प्रकार से उतना मैं जानता हूँ। क्षत्रियमुनि द्वारा क्रियावाद से सम्बन्धित उपदेश
___३०. नाणारुइंच छन्दं च परिवज्जेज संजए।
अणट्ठा जे य सव्वत्था इइ विज्जामणुसंचरे॥ [३०] नाना प्रकार की रुचि (अर्थात्—क्रियावादी आदि के मत वाली इच्छा) तथा छन्दों (स्वमतिपरिकल्पित विकल्पों) का और सब प्रकार के (हिंसादि) अनर्थक व्यापारों (कार्यों) का संयतात्मा मुनि को सर्वत्र परित्याग करना चाहिए। इस प्रकार (सम्यक् तत्त्वज्ञान रूप) विद्या का लक्ष्य करके (तदनुरूप संयमपथ पर) संचरण करे।
३१. पडिक्कमामि पसिणाणं परमन्तेहिं वा पुणो।
___ अहो उट्ठिए अहोरायं इइ विजा तवं चरे॥ [३१] शुभाशुभसूचक प्रश्नों से और गृहस्थों (पर) की मंत्रणाओं से मैं निवृत्त (दूर) रहता हूँ। अहो! अहर्निश धर्म के प्रति उद्यत महात्मा कोई विरला होता है। इस प्रकार जान कर तपश्चरण करो। १. बृहद्वृत्ति पत्र ४४५ २. (क) वही, पत्र ४६६ (ख) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद भा. २, भावनगर से प्रकाशित), पृ. २५