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अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय
२७३ उन्हें धर्मघोषमुनि का धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्ति हो गई। विचार किया कि 'संसार के ये सभी रमणीय पदार्थ कर्मबन्ध के हेतु हैं तथा अस्थिर हैं, बिजली की चमक की तरह क्षणविध्वंसी है। अत: इन सब रमणीय भोगों का त्याग करके मुझे आत्मकल्याण की साधना करनी चाहिए।' यह विचार करके मघवा चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को राज्य सौंप कर प्रव्रज्या ग्रहण की। क्रमशः चारित्र-पालन करके, उग्र तपश्चर्या करके पांच लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके वे सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में देव बने। सनत्कुमार चक्रवर्ती द्वारा तपश्चरण
३७. सणंकुमारो मणुस्सिन्दो चक्कवट्टी महिड्ढिओ।
पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे॥ [३७] महान् ऋद्धिसम्पन्न मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को राज्य पर स्थापित करके तप (-चारित्र) का आचरण किया।
विवेचन-सनत्कुमार चक्रवर्ती की संक्षिप्त जीवनी—कुरुजांगल देशवर्ती हस्तिनापुर नगर के राजा अश्वसेन की रानी सहदेवी की कुक्षि से सनत्कुमार का जन्म हुआ। हस्तिनापुरनिवासी सूर नामक क्षत्रिय का पुत्र महेन्द्रसिंह उसका मित्र था। एक बार अश्वक्रीड़ा करते हुए युवक सनत्कुमार का अश्व विपरीत शिक्षा वाला होने से उसे बहुत दूर ले गया। सब साथी पीछे रह गए। उसकी खोज के लिए महेन्द्रसिंह गया। बहुत खोज करने पर उसका पता लगा। महेन्द्रसिंह ने सनत्कुमार के पराक्रम का सारा वृत्तान्त सुना। दोनों कुमार हस्तिनापुर आए। पिता ने शुभ मुहूर्त में सनत्कुमार का राज्याभिषेक किया। उसके मित्र महेन्द्रसिंह को सेनापति बनाया। तत्पश्चात् अश्वसेन और सहदेवी दोनों ने दीक्षा ग्रहण करके मनुष्यजन्म सार्थक किया। कुछ समय बाद सनत्कुमार चक्रवर्ती हो गए। छहों खंडों पर अपनी विजयपताका फहरा दी।
सौधर्मेन्द्र की सभा में ईशानकल्प के किसी देव की उद्दीप्त देहप्रभा देखकर देवों ने पूछा- क्या ऐसी उत्कृष्ट देहप्रभा वाला और भी कोई है? इन्द्र ने हस्तिनापुर में कुरुवंशी सनत्कुमार चक्रवर्ती को सौन्दर्य में अद्वितीय बताया। इस पर विजय, वैजयन्त नामक दो देवों ने इन्द्र के वचनों पर विश्वास न करके स्वयं परीक्षा करने की ठानी। वे दोनों देव ब्राह्मण के वेष में आए और तेलमर्दन कराते हुए सनत्कुमार चक्री के रूप को देखकर अत्यन्त विस्मित हुए। सनत्कुमार ने उनसे पूछ कर जब यह जाना कि मेरे अद्वितीय सौन्दर्य को देखने की इच्छा से आए हैं तो उन्होंने रूपगर्वित होकर कहा-जब मैं सर्ववस्त्रालंकार विभषित होकर सिंहासन पर बैलूं तब मेरे रूप को देखना। दोनों देवों ने जब सर्ववस्त्रालंकार विभूषित चक्रवर्ती को सिंहासन पर बैठे देखा तो खिन्नचित्त से कहा-अब आपका शरीर पहले जैसा नहीं रहा। चक्रवर्ती ने पूछा-इसका क्या प्रमाण है?
देव-आप थूक कर इस बात की स्वयं परीक्षा कर लीजिए। चक्री ने थूक कर देखा तो उसमें कीड़े कुलबुलाते नजर आए तथा अपने शरीर पर दृष्टि डाली तो उसके भी रूप, कान्ति और लावण्य आदि फीके प्रतीत हुए। यह देख चक्रवर्ती ने विचार किया—मेरा यह शरीर, जो अद्वितीय सुन्दर था आज अल्पसमय में ही अनेक व्याधियों से ग्रस्त, निस्तेज तथा असुन्दर बन गया है। इस असार शरीर और शरीर से सम्बन्धित १. उत्तरा. प्रियदर्शिनी टीका, भा. ३. प. १७७ से १७९