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________________ समीक्षात्मक अध्ययन / ३५ "सोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गामकण्टगा। तुसिणीओ उवेहेजा, न ताओ मणसीकरे ॥" तुलना कीजिए— "सुत्वा रुसितो बहुं वाचं, समणाणं पुथुवचनानं । फरसेन ते न पतिवज्जा, न हि सन्तो पटिसेनिकरोन्ति ॥" -सुत्तनिपात, व. ८, १४ / १८ 'अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्ज्जा, नानुतप्येज पत्रवं ॥" तुलना कीजिए— "खेत्तं वत्युं हिरण्णं च पसवो दासपोर । चत्तारि कामखन्धाणि, तत्थ से उववज्जई ॥ " तुलना कीजिए— " खेत्तं वत्युं हिरवा, गवास्सं दासपोरिसं । थियो बन्धू धू कामे, यो नरो अनुगिज्झति ॥" -उत्तरा २/२५ "चक्खुहि नेव लोलस्स, गामकथाय आवरये सोतं । रसे च नानुगिज्झेय्य, न च ममायेथ किंचि लोकस्मि ॥ - सुत्त, व. ८, १४/८ प्रस्तुत अध्ययन में 'खेत्तं वत्युं हिरण्णं' वाली जो गाथा है, वैसी गाथा सुत्तनिपात में भी उपलब्ध है। देखिए - - उत्तराध्ययन २/३९ "बड़े भाग मानुस तन पावा । सुर नर मुनि सब दुर्लभ गावा ॥" - उत्तराध्ययन ३/१७ -सुत. व. ८, १/४. 1 तृतीय अध्ययन में मानवता, सद्धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम साधना में पुरुषार्थ — इन चार विषयों पर चिन्तन किया गया है। मानवजीवन अत्यन्त पुण्योदय से प्राप्त होता है। भगवान् महावीर ने "दुल्लहे खलु माणुसे भवे" कह कर मानवजीवन की दुर्लभता बताई है तो आचार्य शंकर ने भी "नरत्वं दुर्लभं लोके" कहा है। तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में कहा— मानवजीवन की महत्ता का कारण यह है कि वह अपने जीवन को सद्गुणों से चमका सकता है। मानव-तन मिलना कठिन है किन्तु 'मानवता' प्राप्त करना और भी कठिन है। नर-तन तो चोर, डाकू एवं बदमाशों को भी मिलता है पर मानवता के अभाव में वह तन मानव-तन नहीं, दानव तन है। मानवता के साथ ही निष्ठा की भी उतनी ही आवश्यकता है, क्योंकि बिना निष्ठा के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । गीताकार ने भी " श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" कहकर श्रद्धा की महत्ता प्रतिपादित की है। जब तक साधक की श्रद्धा समीचीन एवं सुस्थिर नहीं होती, तब तक साधना के पथ पर उसके कदम दृढ़ता से आगे नहीं बढ़ सकते, इसलिए श्रद्धा पर बल दिया गया है। साथ ही धर्मश्रवण के लिए भी प्रेरणा दी गई है। धर्मश्रवण से जीवादि तत्त्वों का सम्यक् परिज्ञान होता है और सम्यक् परिज्ञान होने से साधक पुरुषार्थ के द्वारा सिद्धि को वरण करता है।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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