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________________ २५९ सत्रहवाँ अध्ययन : पापश्रमणीय गण में रहना चाहिए। परगेहंसि वावडे : दो अर्थ-(१) चूर्णि के अनुसार परगृह में व्याप्त होता है का अर्थ हैनिमित्तादि बता कर निर्वाह करना। (२) बृहद्वृत्ति के अनुसार-स्वगृह-स्वप्रव्रज्या को छोड़कर जो परगृह में व्याप्त होता है-अर्थात्-जो रसलोलुप आहारार्थी को आप्तभाव दिखाकर उनका काम स्वयं करने लग जाता है। संनाइपिडं जेमेइ–स्वज्ञातिजन अर्थात् स्वजन यथेष्ट स्निग्ध, मधुर एवं स्वादिष्ट आहार देते हैं, इसलिए जो स्वज्ञातिपिण्ड खाता है। सामुदाणियं—ऊंच-नीच आदि सभी कुलों से भिक्षा लेना सामुदानिक है। बृहद्वृत्ति के अनुसार(१) अनेक घरों से लाई हुई भिक्षा तथा (२) अज्ञात ऊंछ–अपरिचित घरों से लाई हुई भिक्षा। दुब्भूए : तात्पर्य—दुराचार के कारणभूत—निन्दित दुर्भूत कहलाता है। सुविहित श्रमण द्वारा उभयलोकाराधना २१. जे वजए एए सया उ दोसे से सुव्वए होइ मुणीण मझे। अयंसि लोए अमयं व पूइए आराहए लोगमिणं तहावरं ॥ —त्ति बेमि [२१] जो साधु इन दोषों का सदा त्याग करता है, वह मुनियों में सुव्रत होता है, वह इस लोक में अमृत के समान पूजा जाता है। अतः वह इस लोक और परलोक दोनों लोकों की आराधना करता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन—सुव्वए—अर्थ—निरतिचारता के कारण प्रशंस्यव्रत। ॥ पापश्रमणीय : सत्रहवाँ अध्ययन समाप्त॥ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ २. (क) वही, पत्र ४३५-४३६ (ख) स्थानांग. ७/५४१ (ग) "छम्मासऽब्तरतो गणा गणं संकम करेमाणो।" -दशाश्रत० ३. (क) बृहद्वृत्ति पत्र ४३६ (ख) चूर्णि० पृ. २४६-२४७ ४. बृहवृत्ति, पत्र ४३६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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