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________________ २५८ उत्तराध्ययनसूत्र आचरण करने में नहीं। अन्यथा, जानते हुए भी आप लम्बी तपस्या क्यों नहीं करते हैं?२ वीर्याचार में प्रमादी : पापश्रमण १७. आयरियपरिच्चाई परपासण्डसेवए। गाणंगणिए दुब्भूए, पावसमणे त्ति वुच्चई॥ - [१७] जो अपने आचार्य का परित्याग करके अन्य पाषण्ड –(मतपरम्परा) को स्वीकार करता है, जो एक गण को छोड़कर दूसरे गण में चला जाता है, वह दुभूत (निन्दित) पापश्रमण कहलाता है। १८. सयं गेहं परिचज, परगेहंसि वावडे। ___ निमित्तेण य ववहरई, पावसमणे त्ति वुच्चई॥ [१८] जो अपने घर (साधु-संघ) को छोड़कर पर-घर (गृहस्थी के धन्धों) में व्याप्त होता (लग जाता) है, जो शुभाशुभ निमित्त बतला कर व्यवहार चलाता—द्रव्योपार्जन करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। १९. सन्नाइपिण्डं जेमेइ, नेच्छई सामुदाणियं। गिहिनिसेजं च वाहेइ, पावसमणे त्ति वुच्चई॥ ___ [१६] जो अपने ज्ञातिजनों—पूर्वपरिचित स्वजनों से ही आहार लेता है, सभी घरों में सामुदानिक भिक्षा लेना नहीं चाहता तथा गृहस्थ की निषद्या ( बैठने की गद्दी) पर बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है। २०. एयारिसे पंचकसीलसंवडे.रूवंधरे मणिपवराण हेट्रिमे। __ अयंसि लोए विसपेव गरहिए, न से इहं नेव परत्थ लोए॥ [२०] जो इस प्रकार का आचरण करता है, वह पांच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत्त है, वह केवल मुनिवेष का ही धारक है, वह श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है, वह इस लोक में विष की तरह निन्द्य है। न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का। विवेचना-आयरियपरिच्चाई—आचार्यपरित्यागी-आचार्य का परित्याग कर देने वाला। तपक्रिया में असमर्थता अनुभव करने वाले साधु को आचार्य तपस्या में उद्यम करने की प्रेरणा देते हैं तथा लाया हुआ आहार भी ग्लान, बालक आदि साधुओं को देते हैं, इस कारण या ऐसे ही किसी अन्य कारणवश जो आचार्य को छोड़ देता है और सुख-सुविधा वाले अन्य पाषण्ड मत-पंथ का आश्रय ले लेता है। गाणंगणिए-गाणंगणिक-जो मुनि स्वेच्छा से गुरु या आचार्य की आज्ञा के बिना, अध्ययन आदि किसी प्रयोजन के बिना ही छह मास की अल्प अवधि में ही एक गण से दूसरे गण में चला जाता है, वह गाणंगणिक कहलाता है। भ. महावीर की संघव्यवस्था में यह नियम था कि जो साधु जिस गण में दीक्षित हो, उसी में जीवन भर रहे। हाँ, अध्ययनादि किसी विशेष कारणवश गुरु-आज्ञा से वह अन्य साधार्मिक गणों में जा सकता है। परन्तु गणान्तर में जाने के बाद कम-से-कम ६ महीने तक तो उसे उसी १-२.बृहवृत्ति, पत्र ४३५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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