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________________ सत्रहवाँ अध्ययन : पापश्रमणीय २५७ करने पर कहे—'आप अपना देखिये! आपने ही तो पहले हमें ऐसा सिखाया था, अब आप ही इसमें दोष निकालते हैं ! इसमें गलती आपकी है, हमारी नहीं।' असंविभागी—जो गुरु, रोगी, छोटे साधु आदि को उचित आहारादि दे देता है, वह संविभागी है, किन्तु जो अपना ही आत्मपोषण करता है, वह असंविभागी है। __ अत्तपन्नहा : तीन रूप : तीन अर्थ-(१) आत्तप्रज्ञाहा-सिद्धान्तादि के श्रवण से प्राप्त सद्बुद्धि (प्रज्ञा) को कुतर्कादि से हनन करने वाला, (२) आप्तप्रज्ञाहा—इहलोक-परलोक के लिए आप्त (हित) रूपी प्रज्ञा से कुयुक्तियों द्वारा दूसरों की बुद्धि को बिगाड़ने वाला। (३) आत्मप्रश्नहा-अपनी आत्मा में उठती हुई आवाज को दबा देना। जैसे किसी ने पूछा कि आत्मा अन्य भवों में जाती है या नहीं? तब उसी प्रश्न को अतिवाचालता से उड़ा देना कि आत्मा ही नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अनुपलब्ध है, इसलिए तुम्हारा प्रश्न ही अयुक्त है।२ ___ वुग्गहे : (१) विग्रह-डंडे आदि से मारपीट करके लड़ाई-झगड़ा करना, (२) व्युद्ग्रह—कदाग्रहमिथ्या आग्रह। अणाउत्ते-सोते समय मुर्गी की तरह पैर पसार कर सिकोड़ लेने का आगम में विधान है। इसीलिए यहाँ कहा गया कि जो संस्तारक पर सोते समय ऐसी सावधानी नहीं रखता, वह अनायुक्त है। तप-आचार में प्रमादी : पापश्रमण १५. दुद्ध-दहीविगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [१५] जो दूध, दही आदि विकृतियों (विगई) का बार-बार सेवन करता है, जिसकी तप क्रिया में रुचि नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। १६. अत्थन्तम्मि य सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं । चोइओ पडिचोएइ, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [१६] जो सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बार-बार आहार करता रहता है, जो समझाने (प्रेरणा देने) वाले शिक्षक गुरु को उलटे उपदेश देने लगता है, वह पापश्रमण कहलाता है। विवेचन-विग्गईओ : व्याख्या—दूध, दही, घी, तेल, गुड़ (चीनी आदि मीठी वस्तुएँ) और नवनीत, ये पांच विगइ (विकृतियां) कहलाती हैं। इनका बार-बार या अतिमात्रा में बिना किसी पुष्टावलम्बन (कारण) से सेवन विकार बढ़ाता है। इसलिए इन्हें विकति कहा जाता है। चोइओ पडिचोइए : व्याख्या-प्रेरणा करने वाले को ही उपदेश झाड़ने लगता है। जैसे किसी गीतार्थ साधु ने दिन भर आहार करते रहने वाले साधु से कहा—'भाई! क्या तुम दिन भर आहार ही करते रहोगे? मनुष्यजन्म, धर्मश्रवण आदि उत्तम संयोग प्राप्त करके तपस्या में उद्यम करना उचित है।' इस प्रकार प्रेरित करने पर वह उलटा सामने बोलने लगता है—आप दूसरों को उपदेश देने में ही कुशल हैं, स्वयं १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४२-३-४. बृहवृत्ति, पत्र ४३५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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