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________________ २५६ उत्तराध्ययन सूत्र [९] जो अनुपयुक्त (असावधान) हो कर प्रतिलेखन करता है, जो पात्र और कम्बल जहाँ-तहाँ रख देता है, जो प्रतिलेखन में अनायुक्त (उपयोगरहित) होता है, वह पापश्रमण कहलाता है। १०. पडिलेहेइ पमत्ते, से किंचि हु निसामिया । गुरुं परिभावए निच्चं, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ __ [१०] जो (इधर-उधर की) तुच्छ बातों को सुनता हुआ प्रमत्त हो कर प्रतिलेखन करता है, जो गुरु की सदा अवहेलना करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। ११. बहुमाई पमुहरे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । ___ असंविभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [११] जो बहुत मायावी (कपटशील) है, अत्यन्त वाचाल है, जिसका इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण नहीं है, जो प्राप्त वस्तुओं का संविभाग नहीं करता, जिसे अपने गुरु आदि के प्रति प्रेम नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। १२. विवादं च उदीरेइ, अहम्मे अत्तपन्नहा । वुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ __ [१२] जो शान्त हुए विवाद को पुनः भड़काता है, जो अधर्म में अपनी बुद्धि को नष्ट करता है, जो कदाग्रह (विग्रह) तथा कलह करने में रत रहता है, वह पापश्रमण कहलाता है। १३. अथिरासणे कुक्कुईए, जत्थ तत्थ निसीयई । आसणम्मि अणाउत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [१३] जो स्थिरता से नहीं बैठता, जो हाथ-पैर आदि की चपल एवं विकृत चेष्टाएं करता है, जो जहाँ-तहाँ बैठ जाता है, जिसे आसान पर बैठने का विवेक नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। १४. ससरक्खपाए सुवई, सेजं न पडिलेहइ। संथारए अणाउत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [१४] जो सचित्त रज से लिप्त पैरों से सो जाता है, जो शैया का प्रतिलेखन नहीं करता तथा संस्तारक (बिछौना) करने में भी अनुपयुक्त (असावधान) रहता है, वह पापश्रमण कहलाता है। विवेचन–अप्पमजियं : प्रमार्जन किये बिना अर्थात्-रजोहरण से पट्टे आदि की सफाई (शुद्धि) किये बिना । यहाँ उपलक्षण से प्रतिलेखन किये (देखे) बिना, अर्थ भी समझ लेना चाहिए। जहाँ प्रमार्जन है, वहाँ प्रतिलेखन अवश्य होता है। ___'किंची हु निसामिया' :—जो कुछ भी बातें सुनता है, उधर ध्यान देकर प्रतिलेखन में उपयोग न रखना। गुरुं परिभावए—(१) जो गुरु का तिरस्कार करता है, गुरु के साथ विवाद करता है, असभ्य वचनों का प्रयोग करके गुरु को अपमानित करता है। जैसे—किसी गलत आचरण पर गुरु के द्वारा प्रेरित १. बृहवृत्ति, पत्र ४३४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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