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सत्रहवाँ अध्ययन : पापश्रमणीय
२५५ वर्षा-कल्प आदि या वस्त्रादि। किं नाम काहामि सुएणं?—वह वर्तमान सुखैषी होकर कहता है—मैं शास्त्र-अध्ययन करके क्या करूंगा? आप जो कुछ अध्ययन करते हैं, उससे भी आप किसी भी अतीन्द्रिय वस्तु को नहीं जान-देख सकते, किन्तु वर्तमान मात्र को देखते हैं, इतना ज्ञान तो मुझमें भी है। फिर मैं शास्त्राध्ययन करके अपने कण्ठ और तालु को क्यों सुखाऊँ? सुहं सुवइ-समस्त धर्मक्रियाओं से निरपेक्षउदासीन हो कर सो जाता है। दर्शनाचार में प्रमादी : पापश्रमण
५. आयरिय-उवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पइ ।
अप्पडिपूयए थद्धे, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ [५] जो आचार्य और उपाध्याय के सेवा आदि कार्यों की चिन्ता नहीं करता, अपितु उनसे पराङ्मुख हो जाता है, जो अहंकारी होता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
विवेचन—पडितप्पई : भावार्थ-वह दर्शनाचारान्तर्गत वात्सल्य से रहित होकर आचार्यादि की सेवा में ध्यान नहीं देता।
अप्पडिपूअए : वह आचार्यादि के प्रति पूजा-सत्कार के भाव नहीं रखता। उपलक्षण से अरिहन्त आदि के प्रति भी यथोचित विनय-भक्ति से विमुख हो जाता है।२ . चारित्राचार में प्रमादी : पापश्रमण
६. सम्ममाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य।
असंजए संजयमन्त्रमाणे, पावसमणे त्ति वुच्चई॥ [६] जो प्राणी (द्वीन्द्रिय आदि जीव), बीज और हरी वनस्पति का सम्मर्दन करता (कुचलता) रहता है तथा असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
७. संथारं फलगं पीढं, निसेजं पायकम्बलं।
अप्पमजियमारुहई, पावसमणे त्ति वुच्चई॥ [७] जो संस्तारक (बिछौना), फलक (पट्टा), पीठ (चौकी या आसन), निषद्या (स्वाध्यायभूमि आदि) तथा पादकम्बल (पैर पोंछने के ऊनी वस्त्र) का प्रमार्जन किये बिना ही उन पर बैठ जाता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
८. दवदवस्स चरई, पमत्ते य अभिक्खणं।
उल्लंघणे य चण्डे य, पावसमणे त्ति वुच्चई॥ [८] जो जल्दी-जल्दी चलता है, जो बार-बार प्रमादाचरण करता रहता है, जो मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, अति क्रोधी होता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
९. पडिलेहेइ पमत्ते, उवउज्झइ पायकम्बलं।
__ पडिलेहणाअणाउत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चाई॥ १. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३२-४३३ २. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३३